मूल श्लोक – 31
सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ॥31॥
शब्दार्थ
सर्वभूतस्थितम् — सभी प्राणियों में स्थित (मुझ ईश्वर को)
यः — जो
माम् — मुझे
भजति — भजता है, प्रेमपूर्वक सेवा करता है
एकत्वम् आस्थितः — एकत्व (अद्वैत) में स्थित होकर
सर्वथा — किसी भी प्रकार से, सभी परिस्थितियों में
वर्तमानः अपि — चाहे जैसे भी वह जीवन में स्थित हो
सः योगी — वह योगी
मयि वर्तते — मुझमें ही स्थित रहता है
जो योगी मुझमें एकनिष्ठ हो जाता है और परमात्मा के रूप में सभी प्राणियों में मुझे देखकर श्रद्धापूर्वक मेरी भक्ति करता है, वह सभी प्रकार के कर्म करता हुआ भी केवल मुझमें स्थित हो जाता है।

विस्तृत भावार्थ
यह श्लोक ईश्वर-चिंतन और भक्ति की सर्वोच्च अवस्था को स्पष्ट करता है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि वह योगी जो हर जीव में मुझे देखता है और एकत्व के भाव से मुझसे जुड़ा रहता है — वह सदा मुझमें स्थित रहता है।
यह केवल एक भावनात्मक स्थिति नहीं, बल्कि एक गहन अंतर्दृष्टि है। यह वह अवस्था है जहाँ साधक को यह भान होता है कि “मैं, तू, वह — सबमें केवल वही परमात्मा स्थित है।”
ऐसा योगी बाह्य स्थिति चाहे कुछ भी हो — गृहस्थ हो या सन्यासी, युद्ध में हो या ध्यान में — उसकी आंतरिक स्थिति ईश्वर से एकाकार रहती है।
भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण
एकत्व का भाव ही सच्चा योग है
भगवान यहां भक्ति की परिभाषा को केवल मंत्र-जप, पूजा या ध्यान तक सीमित नहीं रखते — वे कहते हैं कि जो मेरी उपस्थिति को सर्वत्र अनुभव करता है और मुझे ही सबके भीतर स्थित मानकर प्रेमपूर्वक सेवा करता है, वही सच्चा योगी है।
सर्वथा वर्तमानोऽपि — बाह्य जीवन बाधा नहीं
चाहे वह व्यक्ति व्यापारी हो, योद्धा हो, गृहस्थ हो, संन्यासी हो, उसके कार्य उसे ईश्वर से दूर नहीं कर सकते यदि वह अंतःकरण से एकत्व के भाव में स्थित है।
मयि वर्तते — सदा मुझमें स्थित
ऐसा योगी, परमात्मा से कभी दूर नहीं होता। उसका मन, बुद्धि, चित्त, और कर्म सब ईश्वर में रच-बस जाते हैं।
प्रतीकात्मक अर्थ
प्रतीक | अर्थ |
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सर्वभूतस्थितं | हर जीव के भीतर परमात्मा की उपस्थिति |
एकत्वमास्थितः | द्वैत को पार कर एकत्व (अद्वैत) में स्थित होना |
भजति | केवल पूजा नहीं, सेवा, करुणा और प्रेम का भाव |
सर्वथा वर्तमानः | सांसारिक परिस्थितियाँ मायने नहीं रखतीं |
मयि वर्तते | आत्मा और परमात्मा की अविच्छिन्न एकता |
दार्शनिक दृष्टिकोण
यह श्लोक अद्वैत वेदांत, भक्ति योग और कर्म योग — तीनों का समन्वय है।
यह स्पष्ट करता है कि बाहरी आचरण से अधिक महत्वपूर्ण है आंतरिक दृष्टि।
जब साधक को यह अनुभूति हो जाती है कि सभी में वही परमात्मा है, तो फिर उसका जीवन ईश्वरमय हो जाता है।
योगी वह नहीं जो कर्म त्याग दे, बल्कि वह जो सभी कर्मों में परमात्मा का अनुभव करे।
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- हर जीव में ईश्वर की उपस्थिति का अनुभव ही सच्चा भक्ति मार्ग है।
- भक्ति केवल कर्मकांड नहीं, बल्कि दृष्टिकोण और भाव का विषय है।
- यदि हमारी दृष्टि एकात्म हो जाए, तो द्वेष, घृणा, हिंसा स्वतः समाप्त हो जाती है।
- जीवन की कोई स्थिति ईश्वर से दूर नहीं कर सकती — यदि अंतःकरण शुद्ध हो।
- जो सेवा, करुणा, प्रेम से जीवन जीता है — वही वास्तव में योगी है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
- क्या मैं दूसरों में भी ईश्वर की उपस्थिति का अनुभव करता हूँ?
- क्या मेरी भक्ति केवल पूजा तक सीमित है या सेवा और करुणा तक भी पहुँचती है?
- क्या मैं सांसारिक स्थितियों को ईश्वर से दूरी का कारण मानता हूँ?
- क्या मेरा जीवन एकत्व के भाव से प्रेरित है?
- क्या मैं अपने व्यवहार से यह दर्शाता हूँ कि परमात्मा हर प्राणी में स्थित है?
निष्कर्ष
भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक के माध्यम से उस परिपक्व योगी की परिभाषा देते हैं जो आत्मा और परमात्मा की एकता को प्रत्यक्ष अनुभव करता है।
वह योगी बाह्य जीवन में कुछ भी क्यों न कर रहा हो, लेकिन यदि उसका चित्त ईश्वर में एकाग्र है, तो वह नित्य योग में स्थित है।
यह श्लोक बताता है कि सच्चा योग ध्यान में बैठना नहीं, बल्कि जीवन के प्रत्येक क्षण में ईश्वर को अनुभव करना है।
सच्चा योगी वही है जो “सर्वत्र ईश्वर” को देखकर, “सर्वथा ईश्वर में” स्थित रहता है।
“एकत्व की भावना ही ईश्वर की सच्ची भक्ति है — यही योग है, यही मोक्ष का प्रवेशद्वार।”