मूल श्लोक – 18
अव्यक्ताद् व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे।
रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसञ्ज्ञके॥
शब्दार्थ
| संस्कृत शब्द | हिन्दी अर्थ |
|---|---|
| अव्यक्तात् | अव्यक्त (अदृश्य, सूक्ष्म, कारण रूप) से |
| व्यक्तयः | प्रकट रूप में स्थित जीव या सृष्टियाँ |
| सर्वाः | सभी |
| प्रभवन्ति | उत्पन्न होती हैं, प्रकट होती हैं |
| अह: आगमे | दिन के आगमन पर (ब्रह्मा के दिन के प्रारम्भ में) |
| रात्रि-आगमे | रात्रि के आगमन पर (ब्रह्मा की रात के प्रारम्भ में) |
| प्रलीयन्ते | लीन हो जाती हैं, विलीन हो जाती हैं |
| तत्र एव | उसी में, उसी स्थान में |
| अव्यक्त-सञ्ज्ञके | जो अव्यक्त नाम से जाना जाता है (अव्यक्त कारण में) |
ब्रह्मा के दिन के आरंभ में सभी जीव अव्यक्त अवस्था से व्यक्त होते हैं और रात्रि होने पर पुनः सभी जीव अव्यक्त अवस्था में लीन हो जाते हैं।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण सृष्टि की उत्पत्ति और विलय का शाश्वत चक्र समझा रहे हैं।
यह ब्रह्मांड किसी एक बार की सृष्टि नहीं है, बल्कि यह निरंतर बनने और मिटने की प्रक्रिया में है।
जब ब्रह्मा का दिन प्रारंभ होता है, तब वह अव्यक्त (सूक्ष्म, कारण अवस्था) — जिसमें सब कुछ निहित रहता है — से व्यक्त (स्थूल, प्रकट रूप) की उत्पत्ति होती है।
यानी वही सूक्ष्म ब्रह्मांड बार-बार प्रकट होकर विविध रूपों में दिखाई देता है।
और जब ब्रह्मा की रात्रि आती है, तब यह सम्पूर्ण सृष्टि पुनः उसी अव्यक्त अवस्था में विलीन हो जाती है।
यह चक्र निरंतर चलता रहता है — सृष्टि, स्थिति, प्रलय — जो ब्रह्मांडीय काल का अनंत प्रवाह है।
भगवान यहाँ यह भी संकेत देते हैं कि यह सृष्टि मात्र भौतिक स्तर की नहीं, बल्कि चेतना की तरंगों से उत्पन्न और विलीन होने वाली है।
सभी जीव, ग्रह, नक्षत्र, ब्रह्मांड — सब उस “अव्यक्त” परम सत्ता के भीतर से ही आते हैं और अंततः उसी में लीन हो जाते हैं।
दार्शनिक दृष्टिकोण
यह श्लोक “सृष्टि के चक्रीय स्वरूप” (Cyclic Nature of Creation) की अद्भुत व्याख्या करता है।
वैदिक दर्शन के अनुसार, ब्रह्मांड का कोई स्थायी आरंभ या अंत नहीं है — यह सतत परिवर्तनशील है।
जैसे समुद्र की तरंगें समुद्र से ही उठती हैं और उसी में विलीन हो जाती हैं, वैसे ही संपूर्ण सृष्टि भी “अव्यक्त” परमात्मा से उत्पन्न होकर उसी में लीन होती है।
अव्यक्त का अर्थ है — जो इंद्रियों से परे, अज्ञेय और सूक्ष्म है।
वही परम सत्ता, वही कारण रूप — सबका मूल है।
इस दृष्टि से देखा जाए तो यह श्लोक हमें बताता है कि हमारा अस्तित्व भी उस ही अव्यक्त ब्रह्म का एक अंश है।
अतः जब हम सृष्टि के उत्थान और पतन को देखते हैं, तो यह केवल बाह्य परिवर्तन है —
परम तत्व (अव्यक्त ब्रह्म) न तो उत्पन्न होता है, न नष्ट होता है।
प्रतीकात्मक अर्थ
| श्लोकांश | प्रतीकात्मक अर्थ |
|---|---|
| अव्यक्तात् व्यक्तयः सर्वाः | परम सत्ता (अव्यक्त ब्रह्म) से सृष्टि का प्रकट होना |
| प्रभवन्ति अहः आगमे | सृजन और जीवन का प्रारम्भ — ब्रह्मांडीय जागरण का समय |
| रात्र्यागमे प्रलीयन्ते | प्रलय, विनाश या विश्राम की अवस्था — जब सब पुनः लीन हो जाता है |
| तत्र एव अव्यक्तसञ्ज्ञके | सबका अंतिम आश्रय वही सूक्ष्म, अदृश्य, अनादि ब्रह्म है |
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- सृष्टि और प्रलय एक ही ब्रह्म से होते हैं — सब कुछ उसी एक सत्ता का विस्तार है।
- अव्यक्त अवस्था शाश्वत है, जबकि व्यक्त रूप (प्रकट जगत) अस्थायी और परिवर्तनशील है।
- इस संसार की उत्पत्ति और नाश को देखकर हमें वैराग्य और समता का अभ्यास करना चाहिए।
- आसक्ति केवल व्यक्त रूप से है — यदि हम अव्यक्त ब्रह्म की ओर दृष्टि करें, तो भय और मोह समाप्त हो जाते हैं।
- यह श्लोक हमें सिखाता है कि सच्ची स्थिरता बाहर नहीं, बल्कि उस “अव्यक्त चेतना” में है, जो न कभी उत्पन्न होती है न नष्ट।
- मनुष्य का लक्ष्य इसी अव्यक्त, शाश्वत, निर्गुण ब्रह्म में स्थित होना है — वही अमरता है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
- क्या मैं सृष्टि के इस परिवर्तनशील स्वरूप को समझकर स्थायी सत्य की ओर अग्रसर हूँ?
- क्या मैं बाहरी रूपों में फंसा हूँ या उस अव्यक्त सत्ता को पहचानने का प्रयास कर रहा हूँ?
- क्या मुझे यह अनुभव है कि मेरा अस्तित्व भी उसी परम अव्यक्त ब्रह्म से उत्पन्न है?
- क्या मैं इस जगत के अस्थायी रूपों के पार जाकर नित्य तत्व को समझने का प्रयास करता हूँ?
- क्या मैं प्रलय के भय से मुक्त हूँ, यह जानकर कि आत्मा अव्यक्त और शाश्वत है?
निष्कर्ष
भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक के माध्यम से हमें यह दिव्य दृष्टि देते हैं कि सृष्टि का यह खेल केवल परिवर्तन है, विनाश नहीं।
प्रत्येक प्राणी, प्रत्येक रूप, प्रत्येक जगत उसी अव्यक्त ब्रह्म से उत्पन्न होकर उसी में विलीन होता है।
इसलिए, जब हम किसी का अंत या जन्म देखते हैं, तो यह केवल रूपांतरण है —
अव्यक्त ब्रह्म सदा अचल, नित्य, और साक्षी रूप में स्थित है।
जो साधक इस सत्य को समझ लेता है, वह सृष्टि और प्रलय दोनों से परे जाकर शांति और मुक्त अवस्था को प्राप्त करता है।
“जिसने अव्यक्त को जान लिया, उसने जन्म और मृत्यु दोनों को पार कर लिया।”
