मूल श्लोक – 19
भूतग्राम: स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते।
रात्र्यागमेऽवश: पार्थ प्रभवत्यहरागमे॥
शब्दार्थ
| संस्कृत शब्द | हिन्दी अर्थ |
|---|---|
| भूत-ग्राम: | समस्त प्राणी समुदाय, समस्त सृष्टि |
| स: एव | वही (प्राणी समूह) |
| अयम् | यह |
| भूत्वा भूत्वा | बार-बार उत्पन्न होकर |
| प्रलीयते | नष्ट हो जाता है, लय को प्राप्त होता है |
| रात्रि-आगमे | रात्रि आने पर (ब्रह्म की रात्रि के समय) |
| अवश: | अपने आप, स्वेच्छा से नहीं, प्रकृति के वश में |
| पार्थ | हे पार्थ! (अर्जुन के लिए संबोधन) |
| प्रभवति | उत्पन्न होता है |
| अह: आगमे | दिन आने पर (ब्रह्म के दिन के आरंभ में) |
ब्रह्मा के दिन के आरंभ में असंख्य जीव पुनः जन्म लेते हैं और ब्रह्माण्डीय रात्रि होने पर विलीन हो जाते हैं।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण सृष्टि के आवर्तन (creation and dissolution) के अनादि चक्र का वर्णन करते हैं।
सृष्टि कोई एक बार की घटना नहीं है, बल्कि यह “भूत्वा भूत्वा प्रलीयते” — बार-बार उत्पन्न होने और विलीन होने की प्रक्रिया है। जब ब्रह्म का दिन (अहः) आरंभ होता है, तो समस्त जीव और पदार्थ सक्रिय हो जाते हैं; जब ब्रह्म की रात्रि (रात्र्यागम) आती है, तब सब कुछ प्रकृति में लीन हो जाता है।
यह शाश्वत चक्र सृष्टि, स्थिति, और प्रलय का दार्शनिक स्वरूप है, जहाँ कोई भी वस्तु स्थायी नहीं है। सभी जीव “अवश:” — अर्थात प्रकृति के नियमों के अधीन हैं, किसी के वश में नहीं।
भगवान यह स्पष्ट कर रहे हैं कि यह सृष्टि न तो संयोगवश उत्पन्न होती है और न ही किसी के नाश से समाप्त होती है; यह केवल काल के चक्र में परिवर्तित होती रहती है।
दार्शनिक दृष्टिकोण
यह श्लोक ब्रह्मांड की अनादि आवृत्ति (cyclic nature of existence) को दर्शाता है।
यह बताता है कि सृष्टि और विनाश कोई आरंभ और अंत वाली घटनाएँ नहीं, बल्कि निरंतर गतिशील अवस्थाएँ हैं।
- ब्रह्म का दिन (अहः) = सृष्टि का प्राकट्य, प्राणियों का सक्रिय जीवन।
- ब्रह्म की रात्रि (रात्रि-आगम) = प्रलय या लय अवस्था, जब सब कुछ मूल प्रकृति में समा जाता है।
इस प्रकार, सृष्टि का यह आवर्तन कालचक्र के समान है, जहाँ जीवन और मृत्यु, उत्पत्ति और लय — सब एक ही सतत गति के अंग हैं।
दार्शनिक दृष्टि से यह श्लोक बताता है कि न कोई स्थायी जन्म है न स्थायी मृत्यु — केवल परिवर्तन है, जो ब्रह्म के नियम से चलता है।
प्रतीकात्मक अर्थ
| श्लोकांश | प्रतीकात्मक अर्थ |
|---|---|
| भूतग्राम: स एवायं | संपूर्ण जीवन, संसार के सभी प्राणी और पदार्थ |
| भूत्वा भूत्वा | बार-बार जन्म लेने की प्रवृत्ति, परिवर्तनशीलता |
| प्रलीयते | लय, विश्रांति, मौन, मृत्यु या स्थिरता |
| रात्र्यागमेऽवश: | अंधकार या अज्ञान की अवस्था में आत्मा का सुप्त होना |
| प्रभवत्यहरागमे | पुनः चेतना, ज्ञान या सृष्टि का प्रकट होना |
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
यह संसार स्थायी नहीं है — यह उत्पत्ति और लय का निरंतर चक्र है।
- कोई भी वस्तु नष्ट नहीं होती, केवल रूपांतरित होती है।
- हमें जीवन को ब्रह्म के इस महान चक्र का अंश मानकर स्वार्थ और भय से ऊपर उठना चाहिए।
- “अवश:” शब्द हमें स्मरण कराता है कि हम प्रकृति के अधीन हैं — अतः हमें अहंकार छोड़कर विनम्रता अपनानी चाहिए।
- सृष्टि और प्रलय केवल बाहरी घटनाएँ नहीं, हमारे भीतर भी घटती हैं — जब मन में अंधकार आता है तो हम अज्ञान में लीन हो जाते हैं, और जब प्रकाश आता है तो चेतना पुनः जागृत होती है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
- क्या मैं इस जीवन को स्थायी मानकर मोह और भय में फंसा हूँ?
- क्या मैं यह समझता हूँ कि सब कुछ काल और नियम के अधीन चलता है?
- क्या मैं अपने भीतर के अंधकार (रात्रि) को ज्ञान (अहः) में बदलने का प्रयास करता हूँ?
- क्या मैं सृष्टि और प्रलय को अपने जीवन के उतार-चढ़ाव में देख पाता हूँ?
- क्या मैंने प्रकृति की अनिवार्यता को स्वीकार किया है, या अभी भी अहंकार में जी रहा हूँ?
निष्कर्ष
यह श्लोक हमें जीवन और ब्रह्मांड की नश्वरता के साथ-साथ उसकी निरंतरता का गूढ़ रहस्य सिखाता है।
सृष्टि और विनाश केवल रूप परिवर्तन हैं — जैसे दिन के बाद रात और रात के बाद दिन आता है, वैसे ही जीवन और मृत्यु भी एक ही चक्र के दो पहलू हैं।
भगवान श्रीकृष्ण हमें यह स्मरण कराते हैं कि सच्चा ज्ञान उस व्यक्ति का है जो इस परिवर्तन में भी शाश्वत तत्व — परम ब्रह्म — को पहचान लेता है।
जब हम यह समझ लेते हैं कि सब कुछ ब्रह्म के अधीन है, तब जीवन में भय, मोह और अस्थिरता समाप्त होकर शांति और समर्पण का अनुभव होता है।
