मूल श्लोक:
काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः।
धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः॥17॥
शब्दार्थ:
- काश्यः — काशी देश का राजा
- परमेष्वासः — श्रेष्ठ धनुषधारी (तीर-कमान चलाने में पारंगत)
- शिखण्डी — द्रुपदपुत्र, महारथी (महान योद्धा), पूर्वजन्म में अम्बा
- महारथः — एक ऐसा योद्धा जो अकेले हजारों सैनिकों से लड़ सकता है
- धृष्टद्युम्नः — द्रुपद का पुत्र, अग्नि से उत्पन्न, द्रोणाचार्य के वध के लिए जन्मा
- विराटः — मत्स्य देश का राजा, जिसने पांडवों को अज्ञातवास में शरण दी
- सात्यकिः — यादव कुल का वीर, श्रीकृष्ण का परम भक्त, अपराजित योद्धा
- अपराजितः — जिसे कोई पराजित नहीं कर सकता, अजेय
काशिराज (काश्य) जो अत्यंत श्रेष्ठ धनुषधारी हैं, शिखण्डी जो एक महान योद्धा हैं, धृष्टद्युम्न, विराट और अपराजेय सात्यकि — ये सभी (पांडव पक्ष के) महान महारथी योद्धा हैं।

सरल अनुवाद:
काशी नरेश, जो अत्यंत दक्ष धनुर्धर थे,
शिखण्डी महारथी,
धृष्टद्युम्न, विराट और अपराजित सात्यकि —
इन सभी वीरों ने भी युद्ध के लिए शंखनाद किया।
भावार्थ:
यह श्लोक कुरुक्षेत्र युद्ध के आरंभ में पांडव पक्ष के उन महान योद्धाओं का वर्णन करता है जो युधिष्ठिर, नकुल और सहदेव के शंखनाद के बाद शंख बजाते हैं। इनमें से प्रत्येक योद्धा अपने-अपने क्षेत्र में अद्वितीय है — कोई अपराजित है, कोई धनुष विद्या में निपुण, कोई धर्मयुद्ध के लिए उत्पन्न हुआ है।
विस्तृत भावार्थ:
- काशीराज — कौशल और प्रतिष्ठा का प्रतिनिधित्व:
काशी देश के राजा को “परमेष्वास” कहा गया है — जो तीरंदाजी में अत्यंत निपुण थे। उनका युद्ध में होना इस बात का संकेत है कि धर्म के पक्ष में क्षत्रिय प्रतिष्ठा भी खड़ी है। - शिखण्डी — संकल्प और पुनर्जन्म की प्रतिज्ञा:
शिखण्डी का जन्म पूर्वजन्म की प्रतिज्ञा को पूरा करने के लिए हुआ था। अम्बा के रूप में अपमान का अनुभव करने के बाद उन्होंने पुनर्जन्म लिया और शपथ ली कि भीष्म की मृत्यु का कारण बनेंगे। उनका “महारथ” होना दर्शाता है कि कोई भी संकल्प, यदि दृढ़ हो, तो युगों तक प्रभाव डाल सकता है। - धृष्टद्युम्न — उद्देश्यपूर्ण जीवन का प्रतीक:
अग्नि से उत्पन्न धृष्टद्युम्न का एकमात्र उद्देश्य द्रोणाचार्य का वध था। वह इस युद्ध में धर्म और न्याय की प्रतीक शक्ति बनकर खड़े हैं। - विराट — आश्रयदाता और सहयोग का प्रतीक:
मत्स्यराज विराट वह हैं जिन्होंने पांडवों को अज्ञातवास के दौरान शरण दी। उनका युद्ध में उतरना एक समर्थन और आभार की प्रतीकता है — धर्म के लिए खड़ा होना केवल तलवार से नहीं, समय पर साथ देने से भी होता है। - सात्यकि — भक्ति और अजेयता का संगम:
सात्यकि श्रीकृष्ण के परम भक्त हैं, और एक अपराजित योद्धा। उनका युद्ध में भाग लेना दिखाता है कि जब भक्ति और पराक्रम मिलते हैं, तो विजय निश्चित होती है।
दर्शनशास्त्रीय दृष्टिकोण:
इस श्लोक में जिन योद्धाओं का वर्णन है, वे केवल सैनिक नहीं — बल्कि मानवीय गुणों और सिद्धांतों के प्रतीक हैं:
पात्र | प्रतीक अर्थ |
---|---|
काशी नरेश | दक्षता और क्षत्रिय धर्म का प्रतीक |
शिखण्डी | प्रतिज्ञा, पुनर्जन्म और अधर्म के विरुद्ध संघर्ष |
धृष्टद्युम्न | उद्देश्यपूर्ण जन्म, नियत धर्मकार्य |
विराट | आश्रय, सहयोग और नैतिक समर्थन |
सात्यकि | भक्ति, पराक्रम और अजेय आत्मबल |
आध्यात्मिक संकेत:
यह शंखनाद केवल हथियार उठाने का नहीं,
बल्कि यह सिद्धांतों के लिए उठी आवाज़ है —
जहाँ हर योद्धा एक उद्देश्य, एक नैतिकता और एक आत्मिक संकल्प से प्रेरित है।
निष्कर्ष:
इस श्लोक में यह बताया गया है कि धर्मयुद्ध अकेले वीरता से नहीं जीता जाता —
उसमें न्याय, प्रतिज्ञा, भक्ति, सहयोग और उद्देश्य का संगम आवश्यक है।
आपसे प्रश्न:
क्या आपके जीवन में कोई ऐसा उद्देश्य है जो धृष्टद्युम्न की तरह स्पष्ट हो?
क्या आप शिखण्डी की तरह अपने संकल्प के लिए पुनर्जन्म तक तैयार हैं?
क्या आपके भीतर सात्यकि जैसा आत्मविश्वास और भक्ति का संतुलन है?