मूल श्लोक
एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन।
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते ॥३५॥
शब्दार्थ
- एतान् – इन (सम्बन्धियों को)
- न हन्तुम् इच्छामि – मारना नहीं चाहता हूँ
- घ्नतः अपि – वे चाहे मुझे मारने को ही क्यों न उद्धत हों
- मधुसूदन – हे मधु नामक असुर का वध करने वाले श्रीकृष्ण
- अपि – भले ही
- त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः – तीनों लोकों के राज्य के लिए भी
- किं नु – तो फिर कहाँ
- महीकृते – पृथ्वी के राज्य के लिए
यद्यपि वे मुझपर आक्रमण भी करते हैं तथापि मैं इनका वध क्यों करूं? यदि फिर भी हम धृतराष्ट्र के पुत्रों का वध करते हैं तब भले ही इससे हमें पृथ्वी के अतिरिक्त तीनों लोक भी प्राप्त क्यों न होते हों तब भी उन्हें मारने से हमें सुख कैसे प्राप्त होगा?

विस्तृत भावार्थ (हज़ार शब्दों में विवेचन)
यह श्लोक श्रीमद्भगवद्गीता के प्रथम अध्याय के अत्यंत महत्वपूर्ण क्षण को दर्शाता है, जहाँ अर्जुन का धर्मसंकट चरम पर पहुँचता है। युद्धभूमि में खड़े होकर वह केवल बाह्य शत्रु को नहीं देख रहा, बल्कि अपने आत्मीय बंधुओं को देख रहा है – जो उसकी स्मृतियों, संबंधों और भावनाओं का एक अभिन्न अंग हैं।
यह श्लोक अर्जुन के भीतर चल रहे मानसिक युद्ध को उजागर करता है — जहाँ युद्ध की वास्तविकता के साथ उसकी नैतिक चेतना, करुणा और मोह का संघर्ष हो रहा है।
1. अर्जुन का मोहपूर्ण विरोध
अर्जुन कहता है कि वह अपने स्वजनों को मारना नहीं चाहता, भले ही वे उसकी हत्या करने को तत्पर हों। यहाँ अर्जुन की सद्भावना और करुणा दिखाई देती है, जो उसकी स्वाभाविक मानवीय वृत्ति है। वह प्रतिशोध की भावना से नहीं, अपितु क्षमाशीलता और करुणा से प्रेरित होकर युद्ध से विमुख होना चाहता है।
2. ‘त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः’ का गूढ़ अर्थ
त्रैलोक्य अर्थात् – स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल। अर्जुन यह कहकर कि “तीनों लोकों का राज्य भी यदि मुझे मिले, तो भी मैं इनको नहीं मार सकता” यह दर्शाता है कि उसके लिए सम्बन्ध और करुणा भौतिक वैभव से ऊपर हैं।
यह कथन एक प्रकार से त्याग, वैराग्य और विवेक की ओर संकेत करता है। वह भोग, सत्ता और सम्पत्ति को नकारता है, क्योंकि उन पर प्राप्ति का मूल्य है – अपने ही लोगों का वध।
3. युद्ध के नैतिक पक्ष पर प्रश्न
अर्जुन इस श्लोक में युद्ध की नैतिकता पर प्रश्न करता है। भले ही वह कौरव पक्ष से अन्याय को जानता है, लेकिन आत्मीयता की भावना उसे यह निर्णय नहीं लेने देती कि वह अपने ही रक्त को बहाए।
यह एक ऐसा क्षण है जहाँ धर्म का पालन करना और मानवता का निर्वाह करना — दोनों विरोधाभासी लगते हैं। अर्जुन के लिए युद्ध अब केवल सामरिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक संकट बन गया है।
4. करुणा या कर्तव्य का टकराव
इस श्लोक में अर्जुन की करुणा स्पष्ट है, लेकिन यही करुणा उसे कर्तव्य से विमुख कर रही है। गुरु, पितामह, भ्राता, सखा, पुत्र — इन सभी के विरुद्ध शस्त्र उठाना, उसे धर्म के विपरीत प्रतीत होता है।
परन्तु आगे जाकर श्रीकृष्ण समझाते हैं कि यह युद्ध धर्म की स्थापना के लिए है, केवल निजी द्वेष या सत्ता के लिए नहीं। अतः अर्जुन की यह भावना — यद्यपि करुणा से प्रेरित है — धर्मबुद्धि से नहीं, मोह से उत्पन्न है।
5. श्रीकृष्ण को ‘मधुसूदन’ कहने का विशेष प्रयोजन
यहाँ अर्जुन श्रीकृष्ण को ‘मधुसूदन’ कहकर पुकारते हैं — यह नाम श्रीकृष्ण की अधर्म के विरुद्ध शक्ति का प्रतीक है। मधु नामक असुर का वध करने वाले कृष्ण से अर्जुन कहता है कि तुमने अधर्म का नाश किया, परन्तु मैं तो अपने ही सगे सम्बन्धियों को मारने को तैयार नहीं हूँ।
यहाँ एक सूक्ष्म विरोधाभास है — अर्जुन उनसे अपेक्षा करता है कि वे युद्ध को रोकें, जबकि वह स्वयं जानते हैं कि श्रीकृष्ण अधर्म के विनाश के लिए ही इस समय उपस्थित हैं।
6. स्वधर्म बनाम मोह
अर्जुन का कर्तव्य है — एक क्षत्रिय के रूप में अधर्म के विरुद्ध युद्ध करना। लेकिन जब उसका मोह उसकी आँखों पर परदा डाल देता है, तब वह स्वधर्म से विमुख होकर करुणा की आड़ में अकर्तव्य का समर्थन करता है।
यह श्लोक यही बताता है कि मोह से उत्पन्न करुणा, धर्म नहीं होती। श्रीकृष्ण बाद में स्पष्ट करते हैं कि कर्तव्य से विमुख होकर यदि अर्जुन युद्ध से पीछे हटता है, तो वह अधर्म के साथ संधि करेगा।
7. त्याग और पलायन का अंतर
जब अर्जुन तीनों लोकों के राज्य को अस्वीकार करता है, तो superficially यह त्याग प्रतीत होता है। परन्तु गीता का सिद्धांत है कि कर्तव्य त्यागना त्याग नहीं है, यह पलायन है।
अतः अर्जुन का यह भाव कि “मैं युद्ध नहीं करूँगा” त्याग नहीं, बल्कि अपने मोह और द्विविधा के कारण कर्तव्य से पलायन है।
8. आधुनिक सन्दर्भ में तात्पर्य
आज के युग में यह श्लोक उन परिस्थितियों का प्रतिनिधित्व करता है जब एक व्यक्ति को संघर्षपूर्ण निर्णय लेने होते हैं, जिसमें उसे अपने आत्मीयों के विरुद्ध खड़ा होना पड़ता है — चाहे वह भ्रष्टाचार, अन्याय या व्यक्तिगत सम्बन्धों में ही क्यों न हो।
इस श्लोक से यह शिक्षा मिलती है कि निर्णय करते समय केवल भावना नहीं, बल्कि धर्म, विवेक और कर्तव्य की दृष्टि आवश्यक है।
प्रतीकात्मक दृष्टिकोण
तत्व | प्रतीकात्मक अर्थ |
---|---|
एतान् (स्वजन) | मोह और सम्बन्ध |
न हन्तुम् इच्छामि | करुणा, द्विविधा |
त्रैलोक्यराज्य | भौतिक सुख, लालसा |
मधुसूदन | धर्म का संरक्षक, ईश्वर |
इस प्रकार यह श्लोक केवल युद्ध का वर्णन नहीं, बल्कि मानव अंतःकरण का गहन चित्रण है।
चिंतन के प्रश्न
क्या आप कभी किसी निर्णय में करुणा और कर्तव्य के बीच उलझे हैं?
क्या सम्बन्धों के कारण आपके कर्तव्य प्रभावित हुए हैं?
क्या त्याग का अर्थ कर्तव्य से हट जाना होता है?
निष्कर्ष
एतान्न हन्तुमिच्छामि… — यह श्लोक अर्जुन के हृदय की करुणा, मोह और मानसिक विषाद का गहन परिचायक है। वह युद्धभूमि में खड़ा होकर केवल बाह्य शत्रु नहीं देख रहा, अपितु अपने भीतर के युद्ध को देख रहा है।
यह श्लोक हमें सिखाता है कि जीवन में निर्णय केवल लाभ-हानि के आधार पर नहीं लिए जा सकते। धर्म, विवेक और आत्मदृष्टि से युक्त निर्णय ही यथार्थ होते हैं। अर्जुन की यह मनोदशा केवल पांडवों की नहीं, बल्कि प्रत्येक युग के हर मानव की है — जहाँ हृदय, बुद्धि और आत्मा के बीच संघर्ष होता है।
श्रीकृष्ण इसी मोह से अर्जुन को बाहर निकालने के लिए गीता का उपदेश आरम्भ करते हैं। और यहीं से आरम्भ होता है मानव की चेतना का पुनर्जागरण।