Bhagavad Gita: Hindi, Chapter 2, Sloke 19

English

मूल श्लोक: 19

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते॥

शब्दार्थ (शब्दों का अर्थ):

यः — जो
एनम् — इस (आत्मा को)
वेत्ति — जानता है
हन्तारम् — मारने वाला
यः च — और जो
एनम् मन्यते — इसे मानता है
हतम् — मारा गया
उभौ तौ — वे दोनों
न विजानीतः — नहीं जानते
न अयम् हन्ति — यह (आत्मा) नहीं मारती
न हन्यते — और न ही मारी जाती है

वह जो यह सोंचता है कि आत्मा को मारा जा सकता है या आत्मा मर सकती है, वे दोनों ही अज्ञानी हैं। वास्तव में आत्मा न तो मरती है और न ही उसे मारा जा सकता है।

विस्तृत भावार्थ:

इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण आत्मा की अकर्ता (कर्तापन से रहित) और अभोक्ता (भोग से परे) स्थिति को स्पष्ट करते हैं। युद्ध भूमि में अर्जुन शोक और भ्रम में डूबे हुए हैं, क्योंकि वे अपने परिजनों के शरीर को ही उनका सम्पूर्ण अस्तित्व मान बैठे हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं:

  1. आत्मा के कर्म रहित स्वरूप की स्थापना:
    आत्मा न किसी को मारती है, न मारी जाती है। वह केवल साक्षी है — कर्मों में भाग नहीं लेती। शरीर जो करता है, उसका आत्मा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
  2. अज्ञान का परिणाम:
    जो यह मानते हैं कि आत्मा ही हन्ता (मारने वाला) या हत (मारा गया) है, वे आत्मा के सत्य स्वरूप को नहीं जानते। वे दोनों भ्रम में हैं।
  3. धर्म और आत्मज्ञान का संबन्ध:
    जब आत्मा अकर्ता है और शरीर नश्वर है, तब युद्ध जैसे कर्तव्य से पीछे हटना आत्मज्ञान के विपरीत है। इसलिए अर्जुन को धर्म युद्ध में भाग लेने से नहीं डरना चाहिए।

दार्शनिक अंतर्दृष्टि:

तत्वअर्थ
आत्मानित्य, अकर्ता, अविनाशी चेतना
हन्ता-हतअहंकार द्वारा निर्मित कर्म का भ्रम
अज्ञानआत्मा को शरीर समझ लेना
ज्ञानआत्मा को साक्षी रूप में पहचानना

प्रतीकात्मक अर्थ:

  • हन्ता (मारने वाला) = अहंकार
  • हत (मारा गया) = पीड़ा, मोह
  • न विजानीतः = अज्ञानवश विचलित बुद्धि
  • न हन्ति न हन्यते = आत्मा निर्लिप्त, निष्क्रिय, अजर-अमर

जीवन उपयोगिता:

  • जो जीवन के द्वंद्वों में फंसा है, वह हन्ता-हत की भ्रांति में जीता है।
  • आत्मा के निर्लिप्त और अकर्ता स्वरूप को जानने से मोह, शोक और भय समाप्त होते हैं।
  • कार्य करते हुए भी “मैं करता हूँ” का अभिमान न हो — यही कर्मयोग की कुंजी है।
  • इस श्लोक से हमें आत्मा के प्रति ज्ञान, कर्तव्य के प्रति निर्भयता और जीवन के प्रति समत्व प्राप्त होता है।

आत्मचिंतन के प्रश्न:

क्या मैं किसी भी कर्म को आत्मा का कर्म मान रहा हूँ?
क्या मुझे लगता है कि मैं ही सब कुछ करता हूँ?
क्या मेरे जीवन की समस्याएँ आत्मा के अकर्ता स्वरूप को न समझने का परिणाम हैं?

निष्कर्ष:

श्रीकृष्ण अर्जुन को आत्मा की परम स्थिति बताकर यह स्पष्ट करते हैं कि आत्मा को मारना असंभव है और न ही वह किसी को मार सकती है।
जो ऐसा मानते हैं, वे अज्ञान के अंधकार में हैं।
यह श्लोक आत्मा के नित्य, निष्क्रिय, अकर्ता स्वरूप को उजागर करता है — जो मृत्यु और हिंसा के पार है।
इस ज्ञान के साथ कर्म करें, तो वह कर्म भी बंधनकारी नहीं होता। यही गीता का सार है — ज्ञानयुक्त कर्म।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *