मूल श्लोक: 40
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ॥
शब्दार्थ (शब्दों का अर्थ):
- नेह — इसमें (इस योग में, कर्मयोग में)
- अभिक्रम-नाशः — आरंभ का नाश
- न अस्ति — नहीं होता
- प्रत्यवायः — विपरीत फल (हानि), पाप फल
- न विद्यते — नहीं है
- स्वल्पम् अपि — थोड़ा भी
- अस्य धर्मस्य — इस धर्म (कर्मयोग) का
- त्रायते — रक्षा करता है
- महतः भयात् — महान भय (जन्म-मृत्यु के चक्र) से
इस स्थिति में कर्म करने से किसी प्रकार की हानि या प्रतिकूल परिणाम प्राप्त नहीं होते अपितु इस प्रकार से किया गया अल्प प्रयास भी बड़े से बड़े भय से हमारी रक्षा करता है।

विस्तृत भावार्थ:
इस श्लोक में श्रीकृष्ण कर्मयोग की श्रेष्ठता और
उसके गूढ़ लाभों को स्पष्ट करते हैं।
वे कहते हैं कि जब कोई व्यक्ति इस योग मार्ग पर कदम रखता है —
तो उसका प्रयास कभी व्यर्थ नहीं जाता।
सामान्य कार्यों में प्रयास असफल हो सकता है,
परन्तु कर्मयोग में प्रयास ही सिद्धि की ओर ले जाता है।
यहां तक कि अगर साधक इस जन्म में पूरी सिद्धि न भी प्राप्त करे,
तो अगली जन्म में उसका योग अभ्यास वहीं से आगे बढ़ता है
जहाँ वह छूटा था।
श्रीकृष्ण आगे बताते हैं कि
इस मार्ग का थोड़ा सा अभ्यास भी व्यक्ति को संसार के महान भय —
जैसे जन्म-मृत्यु, दुःख, भ्रम और अधोगति से मुक्त कर सकता है।
दार्शनिक अंतर्दृष्टि:
तत्व | अर्थ |
---|---|
अभिक्रम | प्रयास, आरंभ |
नाश | समाप्ति, विनाश |
प्रत्यवाय | प्रतिकूल फल, पाप |
धर्म | कर्तव्य, योग, साधना |
महतो भयात् | संसार की चक्रीय पीड़ा, मृत्यु का भय, आध्यात्मिक पतन |
यह श्लोक दर्शाता है कि
कर्मयोग परम सुरक्षा प्रदान करता है।
दूसरे मार्गों में संदेह, भ्रम या पतन संभव है,
परन्तु निष्काम कर्म में ईश्वर स्वयं सहायक बन जाते हैं।
प्रतीकात्मक अर्थ:
- नेह (इस योग में) = श्रीकृष्ण द्वारा निर्देशित कर्मयोग
- अभिक्रमनाश = साधना का कोई भाग व्यर्थ नहीं होता
- प्रत्यवाय = हानि, अधोगति, अवनति नहीं होती
- स्वल्पमपि धर्म = थोड़ा-सा भी आत्मपरायण कर्म
- महतो भय = पुनर्जन्म, मृत्यु, अज्ञान, माया
जीवन उपयोगिता:
- यह श्लोक प्रेरणा देता है कि आध्यात्मिक मार्ग पर आरंभ करें,
चाहे वह छोटा ही क्यों न हो —
क्योंकि हर छोटा प्रयास भी सुरक्षित रहता है। - यह जीवन में दृढ़ता लाता है —
कि साधना और निष्काम कर्म करने का कोई नुकसान नहीं,
बल्कि लाभ ही लाभ है। - आधुनिक जीवन की व्यस्तता में
थोड़े समय का ध्यान, सेवा, समर्पण भी
आत्मा को ऊँचे स्तर पर ले जाता है।
आत्मचिंतन के प्रश्न:
क्या मैं इस भयमुक्त कर्ममार्ग में पहला कदम रख पाया हूँ?
क्या मैं प्रयास करने से पहले ही फल की चिंता में रुक जाता हूँ?
क्या मेरा लक्ष्य सिद्धि है या प्रयास ही मेरे लिए पवित्र है?
क्या मैं जानता हूँ कि आध्यात्मिक अभ्यास की ऊर्जा कभी व्यर्थ नहीं जाती?
निष्कर्ष:
इस श्लोक में श्रीकृष्ण हमें यह आत्म-विश्वास प्रदान करते हैं कि
ईश्वर के बताए कर्ममार्ग में किया गया थोड़ा-सा भी कार्य
हमारी आत्मा की प्रगति में अमूल्य योगदान देता है।
न इसमें कोई हानि है, न अधोगति का भय।
यह श्लोक आध्यात्मिक पथ पर चलने वालों को
साहस, प्रेरणा और निरंतरता प्रदान करता है —
कि वह साधना या सेवा की जो भी शुरुआत करें,
वह सदा उनके साथ रहती है —
जैसे बीज में छिपा हुआ वटवृक्ष।
इसलिए, हे साधक!
आरंभ कर — भय न कर।
क्योंकि ईश्वर तुम्हारे हर छोटे प्रयास को भी
महान फल में बदलने का सामर्थ्य रखते हैं।