मूल श्लोक: 45
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्॥ 45॥
शब्दार्थ:
- त्रैगुण्यविषया वेदाः — वेद तीन गुणों (सत्त्व, रजस, तमस) के क्षेत्र से संबंधित हैं
- निस्त्रैगुण्यः भव अर्जुन — हे अर्जुन! तुम त्रिगुणातीत (तीनों गुणों से परे) हो जाओ
- निर्द्वन्द्वः — द्वन्द्वों (सुख-दुःख, लाभ-हानि आदि) से रहित
- नित्यसत्त्वस्थः — सदा शुद्ध सत्त्वगुण में स्थित रहो
- निर्योगक्षेमः — योग (जो नहीं है उसे प्राप्त करने की चेष्टा) और क्षेम (जो है उसकी रक्षा) से रहित
- आत्मवान् — आत्मज्ञान से युक्त, आत्मनियंत्रित, आत्मस्थित
वेदों में प्रकृति के तीन गुणों का वर्णन मिलता है। हे अर्जुन! प्रकृति के इन गुणों से ऊपर उठकर विशुद्ध आध्यात्मिक चेतना मे स्थित हो जाओ। परम सत्य में स्थित होकर सभी प्रकार के द्वैतों से स्वयं को मुक्त करते हुए भौतिक लाभ-हानि और सुरक्षा की चिन्ता किए बिना आत्मलीन हो जाओ।

विस्तृत भावार्थ:
इस श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन को वेदों के कर्मकांड की सीमाओं से ऊपर उठने की प्रेरणा दे रहे हैं। वे बताते हैं कि वेद मुख्यतः त्रिगुणों — सत्त्व, रजस और तमस — के कार्यक्षेत्र से संबंधित हैं। इनके आधार पर वे कर्मों, यज्ञों, और भौतिक लाभों की विधियाँ बताते हैं।
परंतु श्रीकृष्ण अर्जुन को उस स्थूल कर्मकांड की सीमाओं को पार कर आत्मज्ञान और परमशांति की ओर बढ़ने की शिक्षा दे रहे हैं।
भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण
1. ‘त्रैगुण्यविषया वेदाः’ — वेद त्रिगुणों तक सीमित हैं
वेदों में अनेक विधियाँ, यज्ञ, संस्कार और अनुष्ठान वर्णित हैं — जिनका उद्देश्य मनुष्य को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की दिशा में आगे बढ़ाना है। परंतु उनका मुख्य भाग — विशेषकर कर्मकांड — सत्त्व, रजस, तमस गुणों के अनुसार जीवन को संयमित करने का प्रयास करता है।
यहाँ श्रीकृष्ण संकेत करते हैं कि वेद पूर्णतः आध्यात्मिक चेतना की ओर नहीं ले जाते जब तक उन्हें आत्मज्ञान की दृष्टि से न समझा जाए।
2. ‘निस्त्रैगुण्यः भव अर्जुन’ — तीन गुणों से ऊपर उठो
श्रीकृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि मनुष्य का वास्तविक लक्ष्य त्रिगुणों से ऊपर उठना है।
- सत्त्व गुण शांति और ज्ञान देता है,
- रजस गतिविधि, इच्छाएँ और कर्म की प्रेरणा देता है,
- तमस आलस्य और अज्ञान में ले जाता है।
इनसे प्रभावित होकर मनुष्य फंसा रहता है जन्म और मृत्यु के चक्र में। ‘निस्त्रैगुण्य’ अर्थात् उस अवस्था को प्राप्त करना जहाँ आत्मा इन तीनों से परे, निरपेक्ष और शांत हो जाती है — यह योग की परम अवस्था है।
3. ‘निर्द्वन्द्वः’ — द्वन्द्वों से मुक्त बनो
द्वन्द्वों से आशय है —
- सुख-दुख
- लाभ-हानि
- मान-अपमान
- सफलता-असफलता
इनसे मुक्त व्यक्ति ही आत्म-स्थित हो सकता है। अर्जुन को युद्ध के मैदान में यही द्वन्द्व विचलित कर रहा है — वह अपने संबंधियों की मृत्यु से दुःख पा रहा है, और अपने धर्म के कर्तव्य से च्युत हो रहा है।
श्रीकृष्ण उसे समझाते हैं कि द्वन्द्वों से परे जाकर ही धर्म को समझा जा सकता है।
4. ‘नित्यसत्त्वस्थः’ — सदा शुद्ध सत्त्व में स्थित रहो
यद्यपि सत्त्व भी त्रिगुणों में से एक है, पर यह सबसे शुद्ध गुण है। जब तक मनुष्य पूर्णतः गुणातीत नहीं होता, तब तक उसे नित्य सत्त्व में स्थित रहना चाहिए, क्योंकि यह ज्ञान, शांति, संतुलन और विवेक प्रदान करता है।
सत्त्व में स्थित रहकर मनुष्य धीरे-धीरे आत्मा की ओर उन्नत होता है।
5. ‘निर्योगक्षेमः’ — योग और क्षेम की चिंता से मुक्त हो
- योग = जो वस्तु अभी प्राप्त नहीं हुई है, उसे पाने की चिंता
- क्षेम = जो प्राप्त है, उसकी रक्षा की चिंता
अधिकांश लोग अपने जीवन का बहुत बड़ा भाग इन्हीं दो चिंताओं में व्यतीत कर देते हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं — जो आत्मवान है, वह इन दोनों से मुक्त हो जाता है, क्योंकि उसे विश्वास होता है कि भगवान उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति करेंगे और उसे जीवन की गहराई का बोध है।
6. ‘आत्मवान्’ — आत्मज्ञानी और आत्मनियंत्रित
‘आत्मवान्’ वह है जो आत्मा में स्थित हो गया है — जिसे न अपने शरीर से मोह है, न भोगों से, और जो विकारों और वासनाओं पर नियंत्रण पा चुका है। ऐसा व्यक्ति ही वास्तव में स्थिरबुद्धि होता है।
दार्शनिक दृष्टिकोण:
इस श्लोक में गीता का मूल संदेश परिलक्षित होता है — कर्म करो, परंतु फल की अपेक्षा और चिंता के बिना। वेदों के कर्मकांड में उलझकर यदि मनुष्य केवल स्वर्ग और भोग की ओर आकर्षित हो गया, तो वह अंतिम लक्ष्य — मोक्ष या आत्मज्ञान से दूर हो जाता है।
आध्यात्मिक पथ की सच्ची शुरुआत तब होती है जब मनुष्य गुणों, द्वन्द्वों और इच्छाओं से ऊपर उठने का प्रयास करता है।
प्रतीकात्मक अर्थ:
- त्रिगुण = प्रकृति के तीन पहलू (सत्त्व, रजस, तमस)
- द्वन्द्व = मानसिक द्वैत और भावनात्मक अस्थिरता
- योग-क्षेम = प्राप्ति और रक्षा की चिंता
- सत्त्वस्थ = विवेकशील और शुद्धचित्त
- आत्मवान् = आत्मा में स्थित, जागरूक आत्मज्ञानी
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा:
- केवल धार्मिक कर्म करना पर्याप्त नहीं; उसका उद्देश्य आत्मज्ञान होना चाहिए।
- संसार के द्वन्द्वों से ऊपर उठना ही वास्तविक स्वतंत्रता है।
- जो हर समय सत्त्व में स्थित रहता है, वही आध्यात्मिक प्रगति करता है।
- योग-क्षेम की चिंता छोड़ देने से जीवन में शांति आती है।
- आत्म-नियंत्रण और आत्मज्ञान ही जीवन की सर्वोच्च उपलब्धियाँ हैं।
आत्मचिंतन के प्रश्न:
क्या मेरा धर्म केवल कर्मकांड तक सीमित है या आत्मबोध की ओर अग्रसर है?
क्या मैं राग-द्वेष, सुख-दुख जैसे द्वन्द्वों में फंसा हुआ हूँ?
क्या मैं निरंतर सत्त्वगुण में स्थित रहने का प्रयास कर रहा हूँ?
क्या मेरी जीवन-दृष्टि योग-क्षेम की चिंता से ऊपर उठी है?
क्या मैं आत्मा के स्वरूप को जानने का प्रयास कर रहा हूँ?
निष्कर्ष:
इस श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन को — और साथ ही हम सभी को — यह शिक्षा दे रहे हैं कि जीवन केवल कर्म और फल के चक्र में उलझने के लिए नहीं है। इसका उद्देश्य है — त्रिगुणों से ऊपर उठकर आत्मा की स्थिति में पहुँचना।
ऐसा व्यक्ति ही सच्चा ज्ञानी, आत्मवान और मुक्त हो सकता है। जब हम द्वन्द्वों से मुक्त होकर, सत्त्व में स्थित रहते हैं, तब हमारा मन शुद्ध होता है और आत्मा की आवाज़ स्पष्ट सुनाई देती है।