मूल श्लोक: 46
यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः॥ 46॥
शब्दार्थ:
- यावान् अर्थः — जितना उपयोग
- उदपाने — एक छोटे कुएँ का
- सर्वतः सम्प्लुतोदके — चारों ओर जल से परिपूर्ण (बड़े जलाशय) में
- तावान् — उतना ही
- सर्वेषु वेदेषु — सभी वेदों में
- ब्राह्मणस्य — ज्ञानी ब्राह्मण (आत्मज्ञानी व्यक्ति) के लिए
- विजानतः — जो जानता है (आत्मा के सत्य को)
जैसे एक छोटे जलकूप का समस्त कार्य सभी प्रकार से विशाल जलाशय द्वारा तत्काल पूर्ण हो जाता है, उसी प्रकार परम सत्य को जानने वाले वेदों के सभी प्रयोजन को पूर्ण करते हैं।

विस्तृत भावार्थ:
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण एक सुंदर और गहन उपमा (उदाहरण) के माध्यम से यह समझा रहे हैं कि जब किसी व्यक्ति को आत्मज्ञान प्राप्त हो जाता है, तब वेदों की कर्मकांडात्मक विधियाँ और उनके सांसारिक उद्देश्य अपने आप गौण हो जाते हैं।
भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण
1. ‘उदपाने’ और ‘सम्प्लुतोदके’ — जल स्रोतों का प्रतीकात्मक अर्थ
‘उदपान’ (छोटा कुआँ) सीमित जल का प्रतीक है — यह दर्शाता है कि वेदों में वर्णित कर्मकांड, यज्ञ, व्रत, और धार्मिक अनुष्ठान मनुष्य को सीमित लाभ प्रदान करते हैं — जैसे स्वर्ग, पुण्य, भौतिक सुख आदि।
‘सम्प्लुतोदक’ (चारों ओर से जल से भरा हुआ विशाल जलाशय) उस स्थिति को दर्शाता है जहाँ असीम और अखंड ज्ञान, आत्मा की अनुभूति प्राप्त हो गई हो — वहाँ छोटे-छोटे सांसारिक कर्मों की उपयोगिता नगण्य हो जाती है।
2. ब्राह्मणस्य विजानतः — आत्मज्ञानी ब्राह्मण की स्थिति
यहाँ ‘ब्राह्मण’ का अर्थ केवल जाति से नहीं, बल्कि उस व्यक्ति से है जिसने आत्मज्ञान प्राप्त किया हो, जो आत्मा और ब्रह्म को जानता हो।
ऐसे व्यक्ति के लिए:
- कर्मकांड की आवश्यकता नहीं रह जाती,
- यज्ञ और स्वर्ग की कामना लुप्त हो जाती है,
- केवल ब्रह्म की अनुभूति ही शेष रह जाती है।
विजानतः — यानी जिसने न केवल सुना या पढ़ा है, बल्कि अनुभव से जाना है।
3. वेदों की भूमिका का पुनर्मूल्यांकन
भगवद्गीता वेदों का सम्मान करती है, लेकिन वह यह स्पष्ट करती है कि वेदों का उद्देश्य आत्मज्ञान की ओर प्रेरित करना है, न कि व्यक्ति को कर्मकांड में उलझाकर रख देना।
जिसने इस अंतिम लक्ष्य (आत्मा और ब्रह्म की एकता) को जान लिया, उसके लिए वेदों की कर्मकांड आधारित शिक्षाएँ वैसी ही हैं जैसे किसी जलाशय के पास खड़े होकर कुएँ से पानी खोजना।
4. यह उपमा क्यों?
यह उपमा सरल लेकिन अत्यंत प्रभावी है — यह उस मानसिक स्थिति को दर्शाती है जब साधक को अनुभव हो जाता है कि:
- मैं देह नहीं, आत्मा हूँ।
- वेदों के कर्म मुझे केवल सीमित सुख दे सकते हैं।
- वास्तविक शांति आत्मबोध से ही संभव है।
जैसे वर्षा ऋतु में जब चारों ओर जल होता है, तब कोई छोटे पात्र से पानी लेने नहीं जाता, वैसे ही आत्मज्ञानी व्यक्ति वेदों के कर्मकांड की सीमाओं से ऊपर उठ जाता है।
5. वेदों के उद्देश्य की गहराई
वेदों का मुख्य उद्देश्य है — धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष।
लेकिन अधिकांश लोग पहले तीन में ही अटक जाते हैं। गुरु और गीता हमें चौथे — मोक्ष — की ओर ले जाती है। जब मोक्ष ही लक्ष्य बनता है, तो वेदों की भौतिक और लौकिक शिक्षाएँ स्वयं पीछे छूट जाती हैं।
6. आत्मज्ञान — वेदों का सार
गीता बार-बार यह शिक्षा देती है कि:
- सत्य को जानना ही सर्वोच्च है।
- धर्म की प्रक्रिया आत्मा के दर्शन में समाप्त होती है।
इस श्लोक में श्रीकृष्ण बताते हैं कि वेदों का सार आत्मज्ञान में निहित है, और जिसने यह जान लिया, उसके लिए वेदों की बाह्य विधियाँ केवल एक सीढ़ी के समान हैं — जो चढ़ जाने पर पीछे छूट जाती हैं।
दार्शनिक दृष्टिकोण:
यह श्लोक वेदांत के उच्चतम विचार को स्पष्ट करता है — आत्मा और ब्रह्म की एकता ही अंतिम सत्य है।
वेदों की उपयोगिता आरंभिक साधना में है, लेकिन जब साधक ब्रह्मज्ञान को प्राप्त कर लेता है, तो उसका चिंतन, जीवन, और उद्देश्य बदल जाता है।
वह ‘नित्य मुक्त’ हो जाता है — जो न कर्म से बंधा है, न फल की इच्छा से।
प्रतीकात्मक अर्थ:
प्रतीक | अर्थ |
---|---|
उदपान (कुआँ) | सीमित धार्मिक कर्म, यज्ञ, पूजा |
सम्प्लुतोदक (जल से भरा क्षेत्र) | आत्मज्ञान, ब्रह्म की अनुभूति |
ब्राह्मण विजानतः | आत्मा का साक्षात्कार करने वाला ज्ञानी |
सर्वेषु वेदेषु तावानर्थः | वेदों का महत्व आत्मज्ञानी के लिए सीमित है |
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा:
- बाह्य धार्मिक कर्मों का उद्देश्य केवल मानसिक और आध्यात्मिक शुद्धि है।
- जब अंतःकरण शुद्ध हो जाए और आत्मा की अनुभूति हो जाए, तब बाह्य विधियाँ गौण हो जाती हैं।
- ज्ञानी व्यक्ति वेदों को सम्मान देते हुए उनके सार को जीता है — कर्म से परे ज्ञान की ओर।
- आत्मा की पहचान ही सभी धर्मों और वेदों का अंतिम लक्ष्य है।
आत्मचिंतन के प्रश्न:
क्या मैं अभी भी केवल कर्मकांड और पूजा तक सीमित हूँ?
क्या मुझे आत्मज्ञान की ओर बढ़ने की वास्तविक प्रेरणा है?
क्या मैं वेदों को उनके सार रूप में समझने का प्रयास कर रहा हूँ?
क्या मेरी साधना सीमित लाभ की है या मोक्ष की ओर बढ़ रही है?
क्या मैंने ‘उदपान’ से आगे बढ़कर ‘सम्प्लुतोदक’ को पाने का प्रयास किया है?
निष्कर्ष:
यह श्लोक हमें सिखाता है कि वेदों का ज्ञान अपने आप में अंतिम नहीं है, बल्कि यह केवल एक साधन है — आत्मबोध की दिशा में।
जैसे जल से परिपूर्ण क्षेत्र में कुएँ का कोई महत्व नहीं रह जाता, वैसे ही आत्मज्ञान की स्थिति में वेदों के कर्मकांड गौण हो जाते हैं।
श्रीमद्भगवद्गीता का यह श्लोक गूढ़ है, परंतु अत्यंत स्पष्टता से यह शिक्षा देता है कि:
धर्म, ज्ञान और मोक्ष की यात्रा तब पूर्ण होती है जब साधक आत्मा की अनुभूति कर लेता है और फिर बाह्य विधियों की आवश्यकता नहीं रह जाती।