मूल श्लोक: 49
दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ॥ 49॥
शब्दार्थ (शब्दों का अर्थ):
- दूरेण — बहुत दूर (त्याग देना चाहिए)
- हि — निश्चय ही
- अवरं — हीन, तुच्छ
- कर्म — सकाम कर्म (फल की इच्छा से किया गया कर्म)
- बुद्धियोगात् — बुद्धियोग से (निष्काम कर्मयोग)
- धनञ्जय — हे धन अर्जन करने वाले अर्जुन
- बुद्धौ — ऐसी समत्वबुद्धि में
- शरणम् अन्विच्छ — शरण ग्रहण करो, शरण लो
- कृपणाः — दीन, तुच्छ बुद्धिवाले
- फलहेतवः — फल को ही कर्म का हेतु मानने वाले
हे अर्जुन! दिव्य ज्ञान और विवेक की शरण ग्रहण करो, फलों की आसक्ति युक्त कर्मों से दूर रहो जो दिव्य ज्ञान में स्थित बुद्धि के द्वारा निष्पादित किए गए कार्यों से निष्कृष्ट हैं। जो अपने कर्मफलों का भोग करना चाहते हैं, वे कृपण हैं।

विस्तृत भावार्थ:
इस श्लोक में श्रीकृष्ण निष्काम कर्मयोग को सकाम कर्म से श्रेष्ठ बताते हैं। वे अर्जुन से कहते हैं कि फल की इच्छा से किया गया कर्म बुद्धियोग यानी निष्काम कर्म की तुलना में हीन और तुच्छ है। इसलिए अर्जुन को चाहिए कि वह समत्वबुद्धि को अपनाए और उसे ही अपनी शरण बनाए।
जो लोग केवल कर्मफल की प्राप्ति के लिए कर्म करते हैं — वे कृपण, अर्थात् छोटे मन वाले, मोहग्रस्त और आत्मज्ञान से दूर होते हैं।
भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण
क. “दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगात्” — फल-आकांक्षी कर्म हीन है
इस पंक्ति में श्रीकृष्ण दो कर्मों की तुलना कर रहे हैं:
- सकाम कर्म — जो फल की प्राप्ति के लिए किया जाता है
- निष्काम कर्म (बुद्धियोग) — जो समत्वबुद्धि से किया जाता है
श्रीकृष्ण स्पष्ट रूप से कहते हैं कि सकाम कर्म को दूर से ही त्याग देना चाहिए, क्योंकि यह कर्म मनुष्य को बंधन में डालता है, मोह में फँसाता है, और आत्मा को परम सत्य से दूर ले जाता है।
ख. “बुद्धौ शरणं अन्विच्छ” — समबुद्धि में शरण लो
श्रीकृष्ण अर्जुन को “बुद्धौ”, अर्थात् समत्वबुद्धि या निष्काम भाव में शरण लेने की सलाह देते हैं।
यहाँ “शरण” का अर्थ है — पूर्ण समर्पण और स्थायित्व।
जब हम कर्म करते समय समबुद्धि को धारण करते हैं — अर्थात सफलता–असफलता, लाभ–हानि, जय–पराजय को एक समान देखते हैं — तब हम संसार के द्वंद्वों से ऊपर उठते हैं।
इस शरण में आने से मनुष्य:
- मानसिक रूप से शांत होता है
- आत्मा से जुड़ता है
- अहंकार रहित होकर कर्म करता है
ग. “कृपणाः फलहेतवः” — फल को ही कारण मानने वाले दीन हैं
श्रीकृष्ण ‘कृपण’ शब्द का प्रयोग करते हैं उन लोगों के लिए जो कर्म के पीछे केवल फल की लालसा रखते हैं।
‘कृपण’ का अर्थ है — जो आत्मा की ऊँचाई को नहीं समझते, जो आत्मज्ञान को छोड़कर लघु विषयों में उलझे रहते हैं।
ऐसे लोग:
- स्वार्थ में फँसे रहते हैं
- कभी संतुष्ट नहीं होते
- चिंता, मोह, क्रोध, ईर्ष्या में उलझते हैं
- आध्यात्मिक रूप से पीछे रह जाते हैं
कर्म का उद्देश्य आत्मा की शुद्धि और उन्नति होना चाहिए, न कि केवल भोग और संपत्ति।
दार्शनिक दृष्टिकोण:
यह श्लोक कर्म के दो दृष्टिकोणों का भेद करता है:
- बाह्य दृष्टिकोण — जो फल प्राप्त करने के लिए कर्म करता है (सकाम)
- आध्यात्मिक दृष्टिकोण — जो आत्मा की उन्नति के लिए कर्म करता है (निष्काम)
फल की अपेक्षा से किया गया कर्म मनुष्य को कर्म के चक्र में बाँधता है, जबकि समबुद्धि से किया गया कर्म उसे मुक्ति की ओर ले जाता है।
यह श्लोक आत्मा को साधनात्मक जीवन की ओर ले जाता है — जहाँ कर्म, भक्ति, ज्ञान और समर्पण एक साथ चलें।
प्रतीकात्मक अर्थ:
- धनञ्जय = अर्जुन, वह जो बाह्य धन अर्जित करता है, लेकिन अब आंतरिक धन (बुद्धि) अर्जित करने की ओर अग्रसर है
- कर्म = कार्य, प्रयास
- बुद्धियोग = समत्व, विवेक, आत्मनिष्ठा
- शरण = आत्मसमर्पण
- कृपण = आत्मज्ञान से वंचित व्यक्ति
- फलहेतवः = भौतिक इच्छाओं में बंधे लोग
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा:
- केवल फल की इच्छा से कर्म करना आध्यात्मिक पतन का कारण है
- समबुद्धि, विवेक और निष्काम भाव से कर्म करना जीवन को उच्च बनाता है
- हमें फल की अपेक्षा छोड़कर केवल कर्तव्य को अपनाना चाहिए
- कर्म को भगवान को समर्पित करके करना चाहिए
- आत्मा की उन्नति ही कर्म का लक्ष्य होना चाहिए
आत्मचिंतन के प्रश्न:
क्या मैं अपने कर्म को फल की प्राप्ति से जोड़ता हूँ?
क्या मैं कर्म करते समय भगवान को याद करता हूँ?
क्या मैं समबुद्धि को अपनाने का प्रयास कर रहा हूँ?
क्या मेरी मानसिकता कृपणों जैसी तो नहीं — केवल भोग, लाभ, प्रतिष्ठा की लालसा वाली?
क्या मैं अपने जीवन के कर्म को आध्यात्मिक मार्ग पर ला सकता हूँ?
निष्कर्ष:
यह श्लोक हमें निम्नलिखित दिशा देता है:
- सकाम कर्म से दूर रहो
- समबुद्धि को जीवन में उतारो
- फल की आकांक्षा छोड़ दो
- आत्मिक दृष्टि से कर्म करो
- केवल भौतिक लाभ चाहने वाले कृपण हैं — तुम आत्मवान बनो
यह श्लोक केवल एक नीति नहीं, बल्कि एक साधना का मार्ग है। जो इस मार्ग को अपनाता है, वह अंततः आत्मज्ञान, शांति और परमात्मा की प्राप्ति करता है।