मूल श्लोक: 50
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्॥ 50॥
शब्दार्थ
- बुद्धियुक्तः — बुद्धि से युक्त (योगयुक्त) व्यक्ति
- जहाति — त्याग देता है
- इह — इस लोक में
- उभे — दोनों को
- सुकृत-दुष्कृते — पुण्य और पाप कर्मों को
- तस्मात् — इसलिए
- योगाय — योग के लिए
- युज्यस्व — युक्त हो जाओ / प्रवृत्त हो जाओ
- योगः — योग
- कर्मसु कौशलम् — कर्मों में कौशल (कुशलता/कुशल ढंग)
जब कोई मनुष्य बिना आसक्ति के कर्मयोग का अभ्यास करता है तब वह इस जीवन में ही शुभ और अशुभ कर्मफलों से छुटकारा पा लेता है। इसलिए योग के लिए प्रयास करना चाहिए जो कुशलतापूर्वक कर्म करने की कला है।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन को बुद्धियोग की शक्ति और कर्मों की सच्ची कुशलता का रहस्य समझा रहे हैं।
जो व्यक्ति समत्वबुद्धि से कर्म करता है, वह जीवन में:
- न पुण्य की आसक्ति में फंसता है,
- न पाप के भय में दबता है।
- वह दोनों से ऊपर उठकर, केवल कर्तव्यभाव से कर्म करता है।
भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण
‘बुद्धियुक्तो’ — बुद्धि से युक्त व्यक्ति
यहाँ ‘बुद्धि’ का अर्थ केवल तर्कशक्ति नहीं है, बल्कि:
- विवेक,
- ध्यानस्थ स्थिति,
- और आत्मिक दृष्टि से किया गया कर्म है।
बुद्धियोग से युक्त व्यक्ति जानता है कि:
- पाप और पुण्य दोनों बंधन हैं,
- इसलिए वह किसी कर्म का फल अपनी पहचान नहीं बनाता।
‘जहाति उभे सुकृतदुष्कृते’ — पुण्य और पाप का त्याग
आम धारणा है कि पुण्य अच्छा है और पाप बुरा।
लेकिन गीता एक अद्वैतवादी दृष्टिकोण देती है — दोनों बंधनों का कारण हैं।
- पुण्य के फलस्वरूप स्वर्ग मिलता है,
- पाप के कारण नरक मिलता है,
- लेकिन दोनों ही पुनर्जन्म का चक्र बनाते हैं।
सच्चा योगी इन दोनों को त्याग देता है, क्योंकि वह:
- फल की आकांक्षा नहीं करता,
- केवल कर्म के माध्यम से आत्मशुद्धि चाहता है।
‘तस्माद्योगाय युज्यस्व’ — योग में लग जा
यहाँ श्रीकृष्ण एक स्पष्ट आज्ञा देते हैं:
- “हे अर्जुन! इसलिए तू योग में युक्त हो जा।”
यह योग कोई बाहरी विधि नहीं, बल्कि:
- आत्मा की स्थिति,
- कर्म में समता,
- और फल की अपेक्षा से मुक्ति है।
यही जीवन की सच्ची साधना है।
‘योगः कर्मसु कौशलम्’ — योग ही कर्मों में कौशल है
यह गीता का अत्यंत प्रसिद्ध वाक्य है।
- योग का अर्थ केवल तपस्या या ध्यान नहीं है,
- बल्कि कर्म को कुशलतापूर्वक, बुद्धियुक्त और निष्काम भाव से करना ही योग है।
कौशल का अर्थ है:
- कर्म करते हुए मन की शांति बनाए रखना,
- द्वंद्वों से ऊपर उठना,
- और कर्तव्य को साधना का मार्ग बनाना।
इस प्रकार कर्म बंधन नहीं, बल्कि मोक्ष का साधन बन जाता है।
दार्शनिक दृष्टिकोण
यह श्लोक हमें एक क्रांतिकारी धारणा देता है:
- केवल तप, यज्ञ, व्रत नहीं,
- बल्कि सामान्य कर्म भी योग बन सकते हैं, यदि वे बुद्धियुक्त और निष्काम हों।
श्रीकृष्ण पाप-पुण्य के द्वैत से परे एक तृतीय मार्ग देते हैं — बुद्धियोग।
- इसमें कर्म किया जाता है,
- लेकिन स्वयं को कर्म का कर्ता नहीं माना जाता,
- और फल की अपेक्षा भी नहीं होती।
यह अवस्था ही कर्मयोग का चरम बिंदु है।
प्रतीकात्मक अर्थ
- बुद्धियुक्त — विवेकशील, ध्यानस्थ आत्मा
- सुकृत-दुष्कृत — जीवन की द्वैत अवस्थाएँ (सुख-दुःख, सफलता-असफलता)
- योग — आत्मिक संतुलन
- कौशलम् — जीवन जीने की श्रेष्ठ कला
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा:
- पुण्य और पाप — दोनों ही आसक्ति हैं; मुक्त वही है जो उनसे ऊपर उठता है।
- सच्चा योग केवल ध्यान या पूजा नहीं, बल्कि कर्म की कुशलता और आत्म-स्थिरता है।
- कर्तव्य को साधना का मार्ग बना दो, तो जीवन स्वयं मोक्ष बन जाता है।
- बुद्धियोग आत्मा को संसार के द्वंद्व से मुक्त करता है।
आत्मचिंतन के प्रश्न:
क्या मैं अपने कर्मों को बुद्धियुक्त ढंग से करता हूँ या केवल स्वाभाविक आदत से?
क्या मैं पुण्य की इच्छा और पाप के भय से संचालित होता हूँ?
क्या मेरे कर्मों में कौशल है — न केवल क्रिया में, बल्कि भाव में भी?
क्या मैं योग को केवल एक साधना मानता हूँ, या जीवन जीने की कला भी?
क्या मैं कर्म को आत्म-विकास का साधन मानता हूँ?
निष्कर्ष
श्रीकृष्ण इस श्लोक में हमें एक अत्यंत महत्वपूर्ण दृष्टिकोण देते हैं:
- कर्म केवल कर्तव्य नहीं,
- नैतिकता केवल धर्म पालन नहीं,
- और योग केवल ध्यान नहीं।
बल्कि इन तीनों को मिलाकर — एक ऐसा जीवन दृष्टिकोण बनता है जहाँ:
- कर्म किए जाते हैं बुद्धियुक्त होकर,
- फल की चिंता छोड़कर,
- पाप-पुण्य के द्वंद्व से परे रहकर।
यही योग है — यही कर्मों में सच्ची कुशलता है।
इससे जीवन एक आध्यात्मिक साधना बन जाता है, और आत्मा बंधन से मुक्त होकर परमात्मा की ओर बढ़ती है।