Bhagavad Gita: Hindi, Chapter 2, Sloke 52

मूल श्लोक: 52

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च॥ 52॥

शब्दार्थ

  • यदा — जब
  • ते — तेरी
  • मोहकलिलम् — मोह के कीचड़ में फंसी हुई (मोहमय भ्रम का कीचड़)
  • बुद्धिः — बुद्धि
  • व्यतितरिष्यति — पार कर जाएगी
  • तदा — तब
  • गन्तासि — पहुँच जाएगा / प्राप्त करेगा
  • निर्वेदम् — वैराग्य / उदासीनता
  • श्रोतव्यस्य — जो सुना जाना बाकी है
  • श्रुतस्य च — जो सुना जा चुका है, उसके प्रति भी

जब तुम्हारी बुद्धि मोह के दलदल को पार करेगी तब तुम सुने हुए और आगे सुनने में आने वाले इस लोक और परलोक के भोगों के प्रति उदासीन हो जाओगे।

विस्तृत भावार्थ

इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को यह स्पष्ट करते हैं कि आत्मज्ञान की दिशा में चलने वाला व्यक्ति जब अपने भीतर की “मोहग्रस्त” बुद्धि को पार कर लेता है, तब वह बाह्य ज्ञान, मत-मतांतर, और अनेक शास्त्रों की श्रुति के जाल से स्वतः मुक्त हो जाता है।

यहाँ “मोहकलिलम्” एक अत्यंत गहरा शब्द है। यह केवल अज्ञान नहीं, बल्कि अज्ञान से उत्पन्न भ्रमों, भावनात्मक उलझनों, आसक्तियों और पूर्वाग्रहों का दलदल है। जब तक बुद्धि इसमें फंसी रहती है, तब तक व्यक्ति:

  • सही निर्णय नहीं ले पाता,
  • आत्मा का स्वरूप नहीं जान पाता,
  • और सांसारिक श्रवण के फेर में ही उलझा रहता है।

परंतु जैसे ही बुद्धि विवेक और ध्यान के द्वारा इस दलदल से पार होती है, व्यक्ति के भीतर “निर्वेद” उत्पन्न होता है — एक प्रकार की वैराग्यपूर्ण शांति। तब वह जानता है कि:

  • न तो जो सुना है, वह अंतिम सत्य है,
  • न ही जो सुनना है, वह उसकी आत्मा की आवश्यक वस्तु है।

उसे आत्मा का प्रत्यक्ष अनुभव हो चुका होता है, और वह बाहरी शिक्षाओं से ऊपर उठ चुका होता है।

भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण

‘मोहकलिलम्’ — मोह का कीचड़

यह केवल मानसिक भ्रम नहीं, बल्कि हमारे भीतर जमा:

  • स्वार्थ,
  • लालसा,
  • भय,
  • सामाजिक conditioning

का समुच्चय है।

यह बुद्धि को ऐसा जकड़ लेता है कि सत्य और असत्य, धर्म और अधर्म, प्रिय और अप्रिय — इनका अंतर करना भी कठिन हो जाता है।

‘बुद्धिर्व्यतितरिष्यति’ — बुद्धि जब पार कर जाती है

यह पारगमन केवल विचारों से नहीं होता, बल्कि:

  • आत्मचिंतन से,
  • ध्यान से,
  • और श्रीकृष्ण जैसे गुरु की कृपा से होता है।

तब बुद्धि साक्षी बन जाती है — देखती है, परंतु बंधती नहीं।

‘निर्वेदम् गन्तासि’ — तू वैराग्य प्राप्त करेगा

यह वैराग्य:

  • न तो भागना है,
  • न ही उपेक्षा करना,

बल्कि यह एक सहज अविरक्त स्थिति है, जहाँ व्यक्ति:

  • न किसी मत का बंदी होता है,
  • न किसी शिक्षा का दास।

उसे न तो अपूर्ण ज्ञान से मोह होता है, न ही पूर्ण ज्ञान पाने की अधीरता।

‘श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च’ — सुने और सुनने योग्य ज्ञान

यहाँ दो स्तरों पर संकेत है:

  1. सांसारिक श्रवण — शास्त्र, वेद, उपनिषद आदि
  2. मानव निर्मित मान्यताएँ — परंपरा, धर्म, समाज के सिद्धांत

योगी व्यक्ति जानता है कि आत्मा को जानने के लिए श्रवण की एक सीमा होती है। जब ज्ञान प्रत्यक्ष हो जाए, तब शब्द व्यर्थ हो जाते हैं।

दार्शनिक दृष्टिकोण

यह श्लोक ज्ञानयोग की पराकाष्ठा को दिखाता है। गीता केवल “सुनने” की शिक्षा नहीं देती, बल्कि “साक्षात्कार” की ओर ले जाती है।

  • श्रुति, स्मृति, तर्क सब सीमित हैं।
  • आत्मज्ञान असीमित है, और वह तभी संभव है जब बुद्धि “मोहकलिल” से मुक्त हो।

श्रीकृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि शास्त्रज्ञान का मूल्य तभी है जब वह आत्मा की ओर ले जाए। अन्यथा वह केवल मत-मतांतर बनकर उलझा देता है।

प्रतीकात्मक अर्थ

  • मोहकलिलम् — जीवन की उलझनें, भ्रम, पूर्वाग्रह
  • बुद्धि — विवेकशील चेतना
  • व्यतितरिष्यति — आध्यात्मिक जागृति का क्षण
  • निर्वेद — आत्मा की तटस्थता
  • श्रुतम् / श्रोतव्यम् — संचित ज्ञान और आने वाला ज्ञान, दोनों का परित्याग

आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा

  • आत्मज्ञान केवल श्रवण से नहीं, अनुभव से आता है।
  • बुद्धि को मोह से मुक्त करना ही अध्यात्म का प्रारंभ है।
  • जब तक बुद्धि उलझनों में है, तब तक निर्णय अधूरा रहेगा।
  • सच्चा वैराग्य तब आता है जब आत्मा को प्रत्यक्ष अनुभव हो जाता है।

आत्मचिंतन के प्रश्न

क्या मेरी बुद्धि मोह के कीचड़ में फंसी है?
क्या मैं केवल शास्त्र और प्रवचनों पर निर्भर हूँ या आत्मानुभव के लिए प्रयास करता हूँ?
क्या मैं वैराग्य को त्याग समझता हूँ या एक आंतरिक स्वतंत्रता?
|क्या मेरी बुद्धि विवेक से संचालित है या आसक्ति और भय से?
क्या मैं ज्ञान के पारम सत्य तक पहुँचना चाहता हूँ या केवल जानकारी इकठ्ठा कर रहा हूँ?

    निष्कर्ष

    इस श्लोक में श्रीकृष्ण हमें आत्मज्ञान की दिशा में अगला कदम दिखाते हैं।
    जब हमारी बुद्धि मोह से मुक्त होती है, तभी हम ज्ञान की सीमाओं को पहचान पाते हैं।

    वह अवस्था:

    • शब्दों से परे होती है,
    • मतों से परे होती है,
    • और केवल आत्मा के प्रकाश में जीती है।

    यह श्लोक आत्मज्ञान के उस शिखर का संकेत है, जहाँ ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय — तीनों एक हो जाते हैं। तब न कुछ सुनने को रह जाता है, न कुछ कहने को — केवल शांति, केवल साक्षी। यही भगवद्गीता का अद्वितीय सौंदर्य है।

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