मूल श्लोक: 51
कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम् ॥51॥
शब्दार्थ
- कर्मजम् — कर्म से उत्पन्न (फल)
- बुद्धियुक्ताः — समबुद्धि से युक्त
- हि — निश्चय ही
- फलं त्यक्त्वा — फल का त्याग करके
- मनीषिणः — ज्ञानी जन, विवेकी पुरुष
- जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः — जन्म के बंधन से मुक्त
- पदं — परम अवस्था / परम स्थिति / परमात्मा का धाम
- गच्छन्ति — प्राप्त होते हैं
- अनामयम् — जिसमें कोई रोग नहीं है, अर्थात शाश्वत और शुद्ध अवस्था
समबुद्धि युक्त ऋषि मुनि कर्म के फलों की आसक्ति से स्वयं को मुक्त कर लेते हैं जो हमें जन्म-मृत्यु के चक्र में बांधती हैं। इस चेतना में कर्म करते हुए वे उस अवस्था को प्राप्त कर लेते हैं जो सभी दुःखों से परे है।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में श्रीकृष्ण कर्मयोग के चरम फल की व्याख्या कर रहे हैं। वे कहते हैं कि जो ज्ञानीजन विवेकपूर्वक कर्म करते हैं और उसके फल की अपेक्षा नहीं रखते, वे जीवन के चक्र — जन्म और मृत्यु — से मुक्त हो जाते हैं और परम पद को प्राप्त करते हैं।
यहाँ “कर्मजं फलं” से तात्पर्य है — वह फल जो हमारे कर्मों से उत्पन्न होता है। सामान्य व्यक्ति फल की इच्छा से कर्म करता है, जिससे वह कर्मफल में उलझ जाता है और जन्म-मरण के चक्र में फँसा रहता है। किंतु जो “बुद्धियुक्त” यानी विवेकशील व्यक्ति है, वह फल को त्याग कर केवल कर्तव्य की भावना से कर्म करता है।
“जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः” का अर्थ है कि ऐसा व्यक्ति पुनर्जन्म के चक्र से छूट जाता है। और वह “अनामय पद” — वह परम, दिव्य, शुद्ध अवस्था प्राप्त करता है, जो रोग-शोक-मरण से रहित है। यह मोक्ष की अवस्था है, जहाँ आत्मा पूर्ण शांति में प्रतिष्ठित होती है।
भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण
दार्शनिक दृष्टिकोण
यह श्लोक हमें आत्म-विकास की दिशा में निर्णायक कदम उठाने को प्रेरित करता है। श्रीकृष्ण यहाँ कर्मयोग की पराकाष्ठा दिखा रहे हैं — जहाँ कर्म तो होते हैं, परंतु फल की कोई अपेक्षा नहीं रहती।
इसका सार यह है कि:
- कर्म किए जाएँ समता और विवेक से
- फल की आसक्ति छोड़ी जाए
- तब आत्मा जन्म-मृत्यु के बंधनों से मुक्त होकर ब्रह्म पद को प्राप्त करती है
यह ब्रह्म पद ही “अनामयम्” — अर्थात ऐसी अवस्था है, जहाँ कोई मानसिक, शारीरिक या आध्यात्मिक रोग नहीं होता। यह पूर्ण शुद्धता और परम शांति की स्थिति है — जिसे हम ‘मोक्ष’ कहते हैं।
प्रतीकात्मक अर्थ
- कर्मजं फलं — सांसारिक बंधन, सुख-दुःख का चक्र
- बुद्धियुक्ता — आत्मज्ञान से युक्त साधक
- मनीषिणः — विवेकशील आत्माएँ
- जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः — माया और अहंकार से मुक्त जीव
- अनामय पद — ब्रह्मस्थिति, निर्विकल्प शांति की अवस्था
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- फल की इच्छा से किया गया कर्म बंधन का कारण बनता है।
- निष्काम कर्म (फल त्याग) व्यक्ति को जन्म-मरण के चक्र से मुक्त करता है।
- बुद्धियोग, समत्व और विवेक के साथ किया गया कर्म, मोक्ष का साधन बनता है।
- मोक्ष एक कल्पना नहीं, बल्कि अनुभव की स्थिति है — शुद्ध, रोगरहित और शाश्वत।
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मैं अपने कर्मों को फल की आकांक्षा से मुक्त होकर करता हूँ?
क्या मैं कर्म करते समय समता और विवेक रख पाता हूँ?
क्या मैं जन्म-मरण के चक्र से मुक्त होने की आकांक्षा रखता हूँ?
क्या मेरा जीवन मोक्ष की ओर बढ़ रहा है या केवल कर्मफल की चाह में उलझा हुआ है?
क्या मैं अनामय पद — वह दिव्य स्थिति — को प्राप्त करने के लिए प्रयासरत हूँ?
निष्कर्ष
भगवद्गीता का यह श्लोक हमें जीवन का परम उद्देश्य बताता है — आत्मा को जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त कर, उस परम पद तक पहुँचाना जो रोग-शोक-भय से रहित है।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि यह तभी संभव है जब हम:
- बुद्धियोग से युक्त हो जाएँ
- निष्काम भाव से कर्म करें
- फल की आसक्ति का त्याग करें
इस प्रकार का कर्मयोग ही मोक्ष का माध्यम बनता है। यही जीवन का चरम लक्ष्य है — कर्म करते हुए भी बंधन से मुक्त हो जाना और उस शाश्वत स्थिति को प्राप्त करना, जहाँ आत्मा परमात्मा में विलीन हो जाती है।