मूल श्लोक: 55
श्रीभगवानुवाच —
प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥55॥
शब्दार्थ
- प्रजहाति — त्याग देता है
- यदा — जब
- कामान् — इच्छाएँ, वासनाएँ
- सर्वान् — सभी
- पार्थ — हे अर्जुन (पृथापुत्र)
- मनोगतान् — मन में उत्पन्न (इच्छाएँ)
- आत्मनि एव — आत्मा में ही
- आत्मना — आत्मा के द्वारा (स्वयं से)
- तुष्टः — संतुष्ट
- स्थितप्रज्ञः — स्थिरबुद्धि वाला ज्ञानी पुरुष
- तदा — तभी
- उच्यते — कहा जाता है
परम प्रभु श्रीकृष्ण कहते हैं: हे पार्थ! जब कोई मनुष्य स्वार्थयुक्त कामनाओं और मन को दूषित करने वाली इन्द्रिय तृप्ति से संबंधित कामनाओं का परित्याग कर देता है और आत्मज्ञान को अनुभव कर संतुष्ट हो जाता है तब ऐसे मानव को स्थितप्रज्ञ कहा जा सकता है।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में श्रीकृष्ण “स्थितप्रज्ञ” — अर्थात वह व्यक्ति जिसकी बुद्धि स्थिर हो चुकी है — की पहली विशेषता बताते हैं। यह विशेषता है:
कामनाओं का पूर्ण त्याग और आत्मा में आत्मसंतोष।
मनुष्य का चित्त स्वभावतः विषयों की ओर भागता है। इच्छाएँ उसे सुख की ओर ले जाने का भ्रम देती हैं, लेकिन परिणामस्वरूप वह दुःख, द्वंद्व और बंधन में फँसता है।
पर जब कोई साधक —
- भीतर की ओर मुड़ता है,
- आत्मा की शांति और आनंद को पहचानता है,
- और बाह्य विषयों की कामनाएँ त्याग देता है,
तो वह वास्तव में स्थितप्रज्ञ कहलाने योग्य होता है।
यह त्याग दमन नहीं, बल्कि उपलब्धि का फल है। यह वह स्थिति है जहाँ आत्मा में पूर्ण तुष्टि होती है — न कोई लालसा, न अपेक्षा, न अधूरापन।
भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण
दार्शनिक दृष्टिकोण
“स्थितप्रज्ञ” का अर्थ है — ऐसा व्यक्ति जिसकी बुद्धि स्थिर, मन शुद्ध, और चित्त संन्यस्त हो गया है।
यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि:
- मोक्ष की ओर पहला कदम है कामनाओं का त्याग,
- लेकिन वह त्याग तभी संभव है जब आत्मा की भीतरू पूर्णता को अनुभव किया जाए।
“आत्मन्येव आत्मना तुष्टः” — इसका अर्थ है कि सच्चा संतोष बाह्य पदार्थों में नहीं, बल्कि आत्मा की अनुभूति में है।
स्थिरबुद्धि व्यक्ति को न इन्द्रियों की लोलुपता व्याकुल करती है,
न भूतकाल की स्मृतियाँ विचलित करती हैं,
न भविष्य की आकांक्षाएँ उसका चैन हरती हैं।
वह वर्तमान में, आत्मा में, पूर्ण है।
प्रतीकात्मक अर्थ
- कामान् — सांसारिक वासनाएँ: सुख, शक्ति, नाम, प्रतिष्ठा
- मनोगतान् — मन की कल्पनाएँ, इच्छाएँ
- आत्मनि तुष्टः — आत्मा की शांति में संतुष्ट
- स्थितप्रज्ञ — ज्ञानी, आत्मस्थित, मोहमुक्त व्यक्ति
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- सच्ची तृप्ति बाहरी साधनों से नहीं, बल्कि आत्मा के आत्मबोध से आती है।
- इच्छाओं का त्याग अनैच्छिक नहीं होता; यह तब होता है जब आत्मा में आनंद की अनुभूति हो।
- आत्मतुष्टि ही सच्चा वैराग्य है — जहाँ कोई वस्तु या व्यक्ति हमें संपूर्णता नहीं दे सकता।
- स्थितप्रज्ञ होना केवल सन्यासियों के लिए नहीं; यह हर आत्मा की स्वाभाविक अवस्था है, यदि वह स्वयं को पहचान ले।
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मैं अपनी इच्छाओं से संचालित होता हूँ या आत्मज्ञान से?
क्या मेरी तृप्ति दूसरों पर निर्भर है, या मैं स्वयं में संतुष्ट हूँ?
क्या मैं कामनाओं का त्याग विवेक से कर रहा हूँ या दबाव से?
क्या मैं आत्मा की शांति का अनुभव करता हूँ?
क्या मेरा मन वस्तुओं से हटकर आत्मा में स्थित हो पाया है?
निष्कर्ष
इस श्लोक में श्रीकृष्ण आत्मनिर्भर संतोष और कामनाओं के परित्याग को स्थितप्रज्ञता का मूल लक्षण बताते हैं।
जिस व्यक्ति की बुद्धि स्थिर, मन शुद्ध, और चित्त आत्मा में लीन है — वही सच्चा योगी, ज्ञानी और मुक्त कहलाता है।
यह स्थिति किसी बाहरी वस्तु से नहीं मिलती — यह तो भीतर के आत्मा की पहचान से आती है। जब आत्मा को आत्मा में ही तुष्टि मिल जाए — तो संसार की कोई वस्तु आकर्षित नहीं कर सकती।
यही है स्थितप्रज्ञ का स्वरूप — आत्मस्थ, संतुष्ट और मुक्त।