मूल श्लोक: 65
प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ॥65॥
शब्दार्थ
- प्रसादे — मानसिक शांति, संतोष, प्रसन्नता की अवस्था में
- सर्वदुःखानाम् — सभी दुःखों का
- हानि — नाश, समाप्ति
- अस्योपजायते — इसका उत्पन्न होना, होना
- प्रसन्नचेतसः — प्रसन्नचित्त, शांत और संतुष्ट मन वाला
- हि — निश्चय ही
- आशु — शीघ्र, जल्दी
- बुद्धिः — बुद्धि, विवेक
- पर्यवतिष्ठते — स्थिर हो जाती है, टिक जाती है
भगवान की दिव्य कृपा से शांति प्राप्त होती है जिससे सभी दुःखों का अन्त हो जाता है और ऐसे शांत मन वाले मनुष्य की बुद्धि दृढ़ता से भगवान में स्थिर हो जाती है।

विस्तृत भावार्थ
यह श्लोक मानसिक प्रसन्नता और शांति के महत्व को स्पष्ट करता है। जब मनुष्य का मन प्रसन्नचित्त होता है, अर्थात वह तनाव, क्रोध, मोह आदि से मुक्त होता है, तब उसके जीवन से सभी दुःख दूर हो जाते हैं।
मन की प्रसन्नता से ही व्यक्ति के विचार स्पष्ट, सकारात्मक और केंद्रित होते हैं। ऐसा मन बुद्धि को स्थिरता प्रदान करता है जिससे व्यक्ति विवेकपूर्ण निर्णय लेने में समर्थ होता है।
प्रसन्नचित्त व्यक्ति की बुद्धि जल्दी ही अपने केंद्र में स्थापित हो जाती है, जिससे वह सही-गलत का भेद आसानी से कर पाता है और जीवन में सुख-शांति का अनुभव करता है।
भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण
दार्शनिक दृष्टिकोण
मन की शांति और प्रसन्नता आध्यात्मिक उन्नति के लिए आवश्यक है। जब मन अशांत होता है, तब विवेक मंद होता है और व्यक्ति भ्रमित रहता है। इसके विपरीत, जब मन प्रसन्न और स्थिर होता है, तब बुद्धि सही दिशा में काम करती है और व्यक्ति अपने कर्तव्यों और जीवन के उद्देश्य को समझ पाता है।
यह श्लोक हमें बताता है कि मानसिक शांति से सभी प्रकार के दुःख नष्ट हो जाते हैं और यह प्रसन्नता बुद्धि को स्थिरता प्रदान करती है जो ज्ञान और मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करती है।
प्रतीकात्मक अर्थ
- प्रसादे — मन की निर्मल और संतुष्ट अवस्था
- सर्वदुःखानां हानि — मन के सभी दुखों का विनाश
- प्रसन्नचेतसः — शांति और आनंद से भरा मन
- बुद्धिः पर्यवतिष्ठते — विवेक और समझ का स्थिर होना
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- मन की प्रसन्नता से दुःख दूर होते हैं।
- स्थिर और प्रसन्न मन ही सही निर्णय लेने में सहायक होता है।
- मानसिक शांति को प्राप्त करना जीवन का महत्वपूर्ण लक्ष्य होना चाहिए।
- तनाव, क्रोध, मोह आदि से दूर रहकर मन को प्रसन्न रखना चाहिए।
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मेरा मन प्रसन्न और शांत रहता है?
क्या मैं मानसिक शांति बनाए रखने के लिए प्रयास करता हूँ?
तनाव या परेशानी में मेरी बुद्धि कितनी स्थिर रहती है?
क्या मैं अपने दुःखों को प्रसन्नचित्त होकर दूर करने का प्रयास करता हूँ?
क्या मेरी बुद्धि स्थिर और केंद्रित है?
निष्कर्ष
भगवद्गीता का यह श्लोक स्पष्ट करता है कि मन की प्रसन्नता ही जीवन के सभी दुःखों का अंत करती है। एक प्रसन्नचित्त व्यक्ति की बुद्धि जल्दी और आसानी से स्थिर हो जाती है, जो उसे सही मार्ग दिखाती है।
इसलिए, जीवन में मानसिक शांति और प्रसन्नता बनाए रखना अत्यंत आवश्यक है। यह प्रसन्नता न केवल मन के दुःखों को समाप्त करती है, बल्कि बुद्धि को भी जागरूक और केंद्रित बनाती है, जिससे व्यक्ति सच्चे ज्ञान और मुक्ति की ओर अग्रसर होता है।