मूल श्लोक: 68
तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥
शब्दार्थ
- तस्मात् — इसलिए
- यस्य — जिसके
- महाबाहो — हे महाबाहु (अर्जुन के लिए सम्बोधन)
- निगृहीतानि — नियंत्रित, संयमित
- सर्वशः — सभी प्रकार से, सम्पूर्ण रूप से
- इन्द्रियाणी — इन्द्रियाँ, इंद्रियांग (सुनना, देखना, छूना, स्वाद लेना, गंध लेना)
- इन्द्रियार्थेभ्यः — इंद्रियों के विषयों से
- तस्य — उसका
- प्रज्ञा — बुद्धि, विवेक, ज्ञान
- प्रतिष्ठिता — स्थापित, स्थिर, स्थित
इसलिए हे महाबाहु। जो मनुष्य इन्द्रियों के विषय भोगों से विरक्त रहता है, वह दृढ़ता से प्रज्ञा से युक्त हो जाता है।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में भगवान कृष्ण अर्जुन को समझा रहे हैं कि मनुष्य की बुद्धि किस प्रकार स्थिर हो सकती है।
जो व्यक्ति अपने इन्द्रियों को और इन्द्रिय विषयों को पूर्ण रूप से नियंत्रित करता है — अर्थात जो व्यक्ति न तो इन्द्रिय सुखों में लिप्त होता है, न उनसे विचलित होता है — उसकी बुद्धि या प्रज्ञा स्थिर होती है।
यह स्थिर बुद्धि उसे आंतरिक शांति और स्थायित्व प्रदान करती है, जिससे वह जीवन के उतार-चढ़ावों में डिगता नहीं। ऐसे मनुष्य के लिए जीवन के विषय भी बाधा नहीं बनते क्योंकि वह अपने मन और इन्द्रियों पर अधिकार रखता है।
इस प्रकार, इन्द्रिय संयम बुद्धि की स्थिरता का आधार है।
भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण
दार्शनिक दृष्टिकोण
यह श्लोक यह बताता है कि बाहरी संसार की अस्थिरता और प्रलोभनों के बीच मनुष्य की बुद्धि तब तक स्थिर नहीं हो सकती जब तक कि वह इन्द्रियों का नियंत्रण नहीं करता।
इन्द्रिय विषयों के प्रति आसक्ति और अभिमोह बुद्धि को भ्रमित कर देते हैं। जब मनुष्य इन्द्रियों को उनके विषयों से पृथक कर नियंत्रण में रखता है, तभी उसकी बुद्धि सशक्त और स्थिर होती है।
यह आत्म-अनुशासन आध्यात्मिक उन्नति का एक आवश्यक चरण है।
प्रतीकात्मक अर्थ
- इन्द्रियाणी निगृहीतानि — इन्द्रियाँ जैसे पाँचों इन्द्रिय और मन को संयमित रखना
- इन्द्रियार्थेभ्यः — इन्द्रिय विषयों से न लिपटना या विचलित न होना
- प्रज्ञा प्रतिष्ठिता — बुद्धि का अडिग, स्थिर और स्पष्ट होना
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- इन्द्रिय संयम से ही मानसिक स्थिरता और ज्ञान की प्राप्ति होती है।
- बिना संयम के मन विचलित और अनियंत्रित रहता है, जिससे निर्णय क्षमता कमजोर होती है।
- इन्द्रियों का नियंत्रण व्यक्ति को आंतरिक स्वतंत्रता और शांति देता है।
- आध्यात्मिक साधना में इन्द्रिय संयम एक महत्वपूर्ण आधार है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मैं अपने इन्द्रिय और इन्द्रिय विषयों को नियंत्रित कर पाता हूँ?
क्या मेरे मन में विषयों के प्रति अनावश्यक आसक्ति है?
क्या मेरी बुद्धि जीवन की परिस्थितियों में स्थिर रहती है?
क्या मैं ध्यान और योग के माध्यम से अपने इन्द्रिय संयम को बढ़ावा देता हूँ?
क्या मैं अपने आचरण में संयम और विवेक को प्राथमिकता देता हूँ?
निष्कर्ष
यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि इन्द्रिय संयम ही बुद्धि की स्थिरता का मूल कारण है। जब हम अपनी इन्द्रियों को पूरी तरह नियंत्रित कर लेते हैं और इन्द्रिय विषयों के मोह से मुक्त हो जाते हैं, तभी हमारी बुद्धि स्थिर और दृढ़ होती है।
श्रीकृष्ण अर्जुन को इस माध्यम से यह समझा रहे हैं कि आध्यात्मिक उन्नति और मानसिक शांति के लिए इन्द्रिय संयम आवश्यक है।
संयमित इन्द्रियाँ जीवन के संघर्षों में मन को अडिग रखती हैं, जिससे व्यक्ति सच्चे ज्ञान और आनंद की प्राप्ति कर सकता है।