Bhagavad Gita: Hindi, Chapter 2, Sloke 67

मूल श्लोक: 67

इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायु वमिवाम्भसि ॥67॥

शब्दार्थ

  • इन्द्रियाणाम् — इंद्रियाणों का (इंद्रियाँ — इंद्रियेंद्रियाँ, जैसे नेत्र, श्रवण, घ्राण, आदि)
  • हि — निश्चय ही
  • चरतान् — गतिशील, चलने वाले
  • यत् — जो
  • मनः अनुविधीयते — मन जो अनुसरता है, जिसका मन अनुसरण करता है
  • तत् — वह
  • अस्य — उसकी
  • हरति — ले जाता है, छीन लेता है
  • प्रज्ञां — बुद्धि, विवेक
  • वायु वमि इव अम्भसि — हवा की तरह जल को छीन लेती है; यहाँ वायु का जल को दूर कर देना एक उपमा है

जिस प्रकार प्रचंड वायु अपने तीव्र वेग से जल पर तैरती हुई नाव को दूर तक बहा कर ले जाती है उसी प्रकार से अनियंत्रित इन्द्रियों में से कोई एक जिसमें मन अधिक लिप्त रहता है, बुद्धि का विनाश कर देती है।

विस्तृत भावार्थ

यह श्लोक मन और इंद्रिय के संबंध को दर्शाता है। जब मन इंद्रियों के आकर्षण और इच्छाओं का अनुसरण करता है, तब वह अपने विवेक और बुद्धि को खो देता है।

यह स्थिति इस प्रकार है जैसे हवा जल के उपर से बहती है और उसे अपनी पकड़ से दूर कर देती है। इसी प्रकार जब मन इंद्रियों के पीछे भागता है, तो उसकी बुद्धि विक्षिप्त हो जाती है और स्थिर नहीं रह पाती।

मन के इंद्रियों के पीछे भागने का परिणाम बुद्धि की हानि है, जिससे व्यक्ति भ्रमित और असमझ बन जाता है। यह श्लोक इस बात पर जोर देता है कि मन को इंद्रियों के प्रभाव से दूर रखना चाहिए ताकि बुद्धि स्थिर और केंद्रित रह सके।

भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण

दार्शनिक दृष्टिकोण

श्रीकृष्ण इस श्लोक के माध्यम से मन की स्थिति और उसकी बुद्धि पर प्रभाव को समझा रहे हैं। मन जब इंद्रियों का अनुसरण करता है, तो वह अपनी स्थिरता खो देता है। बुद्धि, जो निर्णय लेने वाली शक्ति है, उस समय कमजोर और अशांत हो जाती है।

यह मनुष्य को मोह-माया और सांसारिक भ्रम में उलझा देता है। इसलिए मन और इंद्रियों का संयम आवश्यक है ताकि बुद्धि अपनी स्थिरता और विवेकपूर्ण निर्णय क्षमता बनाए रखे।

प्रतीकात्मक अर्थ

  • मन इंद्रियाणां अनुविधीयते — मन इंद्रियों के पीछे दौड़ना
  • बुद्धि हरति — बुद्धि छीन ली जाती है, खो जाती है
  • वायु वमिवाम्भसि — हवा के जल को बहा ले जाने की तरह बुद्धि को खो देना

आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा

  • मन को इंद्रियों के वश में नहीं होने देना चाहिए।
  • इंद्रिय निवृत्ति से ही बुद्धि की स्थिरता संभव है।
  • जब मन इंद्रिय प्रभाव से मुक्त होता है, तभी वह सच्चे ज्ञान को प्राप्त कर सकता है।
  • सांसारिक इच्छाओं का अनुसरण बुद्धि और विवेक दोनों का नाश करता है।

आत्मचिंतन के प्रश्न

क्या मेरा मन अक्सर इंद्रियों के पीछे भागता है?
क्या मैं अपनी बुद्धि को स्थिर और केंद्रित रख पाता हूँ?
क्या मैं इंद्रिय वशीभूत हो जाता हूँ या उनके प्रभाव से मुक्त हूँ?
क्या मैं मन को संयमित रखने के लिए प्रयास करता हूँ?
क्या मेरी बुद्धि वायु की तरह बह जाती है, या स्थिर और मजबूत रहती है?

निष्कर्ष

यह श्लोक हमें मन और इंद्रिय के संबंध की गंभीर समझ देता है। मन जब इंद्रिय के पीछे भागता है, तो बुद्धि छीन जाती है, जिससे व्यक्ति भ्रमित और अस्थिर हो जाता है।

मन को संयमित और इंद्रिय नियंत्रण में रखना आवश्यक है ताकि बुद्धि की स्थिरता बनी रहे और व्यक्ति सही मार्ग पर चल सके। बुद्धि के स्थिर होने पर ही मनुष्य जीवन में सच्चे ज्ञान, शांति और सफलता की प्राप्ति कर पाता है।

श्रीकृष्ण इस श्लोक के माध्यम से संयम, विवेक और आत्म नियंत्रण की महत्ता को प्रतिपादित करते हैं, जो आध्यात्मिक प्रगति के मूलाधार हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *