Bhagavad Gita: Hindi, Chapter 2, Sloke 69

मूल श्लोक: 69

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥69॥

शब्दार्थ

  • या निशा — वह रात
  • सर्वभूतानाम् — सभी प्राणियों की, समस्त जीवों की
  • तस्यां — उसमें, उस रात में
  • जागर्ति — जागता है, सक्रिय होता है
  • संयमी — संयमित योगी, आत्मसंयमी
  • यस्यां — जिसमें
  • जाग्रति — जागते हैं
  • भूतानि — जीव, प्राणी
  • सा निशा — वही रात है
  • पश्यतः मुनेः — जो ज्ञानी मुनि देखता है

जिसे सब लोग दिन समझते हैं वह आत्मसंयमी के लिए अज्ञानता की रात्रि है तथा जो सब जीवों के लिए रात्रि है, वह आत्मविश्लेषी मुनियों के लिए दिन है।

विस्तृत भावार्थ

यह श्लोक द्वैत और अद्वैत दोनों दृष्टिकोणों से गहरा अर्थ प्रस्तुत करता है। यहाँ “निशा” का अर्थ केवल शारीरिक निद्रा से नहीं, बल्कि आध्यात्मिक और मानसिक जागरूकता के स्तर से है।

साधारण प्राणी जब शारीरिक निद्रा में होता है, तब संयमी योगी (योग में दक्ष और आत्मसंयमित व्यक्ति) जाग्रत और सतर्क होता है। यह जागरण ज्ञान, ध्यान और आत्मबोध का सूचक है।

दूसरी ओर, जब सामान्य जीव जागरूक होते हैं और भौतिक संसार में मग्न रहते हैं, तब ज्ञानी मुनि के लिए वह अवस्था “निशा” अर्थात आध्यात्मिक अंधकार समान होती है। क्योंकि वह जीवों की मोह-माया और भ्रम की स्थिति को समझता है।

इस प्रकार यह श्लोक संयम, जागरूकता, और माया की व्याख्या करता है, जिसमें वास्तविक ज्ञान और माया का भेद स्पष्ट होता है।

भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण

दार्शनिक दृष्टिकोण

श्रीकृष्ण इस श्लोक द्वारा वास्तविक जागरूकता की परिभाषा देते हैं। जहाँ सामान्य जीव शारीरिक निद्रा में डूबे होते हैं, वहाँ योगी पूर्ण चेतना में होता है। योगी का यह जागरण उसकी आत्मिक उन्नति का प्रतीक है।

दूसरी ओर, जहाँ सामान्य जीव भौतिक संसार में सक्रिय होते हैं, ज्ञानी मुनि इसे आध्यात्मिक अंधकार की तरह देखता है, क्योंकि वे उस अवस्था से मुक्त होकर शाश्वत सत्य में स्थित हैं।

प्रतीकात्मक अर्थ

  • निशा — अज्ञान, मोह, अंधकार
  • जागृति — ज्ञान, चेतना, सतर्कता
  • संयमी — योग साधक, आत्मसंयमी
  • मुनि — ज्ञानी, ध्यानयोगी

आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा

  • साधारण लोगों का शारीरिक निद्रा में होना योगी की गहरी जागरूकता का प्रमाण है।
  • भौतिक जगत में सक्रिय जीव ज्ञानी मुनि को आध्यात्मिक अंधकार में दिखाई देते हैं।
  • संयम, ज्ञान और आत्मबोध से ही वास्तविक जागरूकता संभव है।
  • यह श्लोक हमें अपने मन और इंद्रिय को संयमित करके जागरूक रहने का संदेश देता है।

आत्मचिंतन के प्रश्न

क्या मैं केवल बाहरी जगत में जागरूक हूँ या अपने भीतर भी सचेत हूँ?
क्या मैं अपनी आत्मा के स्थिर और जागरूक होने की ओर बढ़ रहा हूँ?
क्या मैं साधारण निद्रा के बीच भी आंतरिक जागरूकता बनाए रखता हूँ?
क्या मैं भौतिक संसार की गतिविधियों को माया का रूप समझ पाता हूँ?
क्या मैं संयम और आत्मज्ञान के मार्ग पर चल रहा हूँ?

निष्कर्ष

यह श्लोक हमें वास्तविक जागरूकता और संयम की महत्ता समझाता है। जहाँ सभी प्राणी निद्रा में होते हैं, वहाँ संयमी योगी अपने अंदर की गहरी जागृति का अनुभव करता है।

और जहाँ सामान्य जीव जागरूक हैं, वहाँ ज्ञानी मुनि उसे आध्यात्मिक अंधकार मानता है। इस प्रकार यह श्लोक हमें माया और सत्य, अज्ञान और ज्ञान के बीच अंतर बताता है और संयम एवं ध्यान के महत्व को रेखांकित करता है।

श्रीकृष्ण का यह संदेश है कि हमें अपनी आंतरिक जागरूकता और संयम को विकसित करना चाहिए, ताकि हम सच्चे ज्ञान और मोक्ष की प्राप्ति कर सकें।

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