मूल श्लोक: 70
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी॥
शब्दार्थ
- आपूर्यमाणम् — सदैव भरता हुआ
- अचल-प्रतिष्ठम् — जिसकी स्थिति अचल (अडोल) है
- समुद्रम् — समुद्र
- आपः — जलराशियाँ, नदियाँ
- प्रविशन्ति — प्रविष्ट होती हैं, प्रवेश करती हैं
- यद्वत् — जिस प्रकार
- तद्वत् — उसी प्रकार
- कामाः — विषय-इच्छाएँ, भोग-वासनाएँ
- यं — जिस (ज्ञानी को)
- प्रविशन्ति — प्रवेश करती हैं
- सर्वे — सभी
- सः — वह
- शान्तिम् — शांति, आत्मिक शांति
- आप्नोति — प्राप्त करता है
- न कामकामी — जो विषय-वासना की कामना करता है, वह नहीं
जिस प्रकार से समुद्र उसमें निरन्तर मिलने वाली नदियों के जल के प्रवाह से विक्षुब्ध नहीं होता उसी प्रकार से ज्ञानी अपने चारों ओर इन्द्रियों के विषयों के आवेग के पश्चात भी शांत रहता है, न कि वह मनुष्य जो कामनाओं को तुष्ट करने के प्रयास में लगा रहता है।

विस्तृत भावार्थ
भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में एक अत्यंत सुंदर उपमा के माध्यम से कामनाओं पर नियंत्रण का संदेश दे रहे हैं।
समुद्र का स्वभाव है — स्थिर, गम्भीर, अचल। उसमें कितनी भी नदियाँ आकर मिलें, वह अपनी मर्यादा नहीं छोड़ता। समुद्र सब कुछ ग्रहण कर लेता है, फिर भी उसकी गहराई और शांति में कोई कमी नहीं आती।
उसी प्रकार एक स्थिरबुद्धि ज्ञानी व्यक्ति — आत्मसंयमी — संसार की भोग-वासनाओं से प्रभावित नहीं होता। वह भले ही संसार में रह रहा हो, परन्तु विषय उसे विचलित नहीं करते। वह सभी इच्छाओं को आने देता है, पर वह उन पर प्रतिक्रिया नहीं करता — जैसे समुद्र।
इसके विपरीत कामकामी, अर्थात जो वासनाओं की पूर्ति में ही सुख खोजता है, वह कभी संतुष्ट नहीं हो सकता। वह वासनाओं का दास बनकर जीवन भर अशांति में रहता है।
भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण
दार्शनिक दृष्टिकोण
यह श्लोक आत्म-नियंत्रण और मानसिक स्थिरता की पराकाष्ठा को प्रकट करता है। कामनाएँ मानव स्वभाव का हिस्सा हैं, लेकिन ज्ञानी उन्हें आने जाने देता है — वह उनसे चिपकता नहीं।
यह उपमा दर्शाती है कि:
- सच्ची शांति — बाहर की परिस्थितियों को नियंत्रित करने में नहीं, बल्कि भीतर की प्रतिक्रियाओं को स्थिर रखने में है।
- विषय आने दें, लेकिन उन पर मन न टिके।
- आत्मा की सच्ची प्रकृति शांत है, जैसे समुद्र की गहराई।
प्रतीकात्मक अर्थ
- समुद्र — आत्मस्थित ज्ञानी
- नदियाँ — भोग-वासनाएँ, इच्छाएँ
- आपूर्यमाणम् — निरंतर प्रवाहित इच्छाएँ
- अचल प्रतिष्ठम् — अडोल आत्मा, जिसकी स्थिति स्थिर है
- कामकामी — इच्छाओं का दास, जो बाह्य सुख में शांति खोजता है
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- इच्छाओं का आना स्वाभाविक है, लेकिन उन पर मन का लगाव न हो, यही संयम है।
- आत्मज्ञानी पुरुष विषयों को त्यागता नहीं, बल्कि उन पर प्रतिक्रिया देना बंद कर देता है।
- इच्छाओं का अंत नहीं है; उन्हें तृप्त करने की चाह अशांति का कारण है।
- शांति उसी को मिलती है, जो भीतर से पूर्ण है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मैं इच्छाओं को देखकर विचलित हो जाता हूँ?
क्या मैं विषयों से आने वाली प्रतिक्रियाओं को शांत रूप से सहन कर पाता हूँ?
क्या मैं भीतर से स्थिर हूँ, या मेरी शांति बाह्य परिस्थितियों पर निर्भर है?
क्या मेरी शांति आत्मा से आती है या विषय-पूर्ति से?
क्या मैं कामनाओं का स्वामी हूँ या उनका दास?
निष्कर्ष
श्रीमद्भगवद्गीता का यह श्लोक एक आदर्श आत्मा की झलक देता है — जो संसार में रहकर भी संसार से परे है। वह व्यक्ति जिसकी आत्मा समुद्र की भाँति अचल है, विषयों के मध्य भी शांत रहता है।
वह व्यक्ति जो इच्छाओं को अपने जीवन का लक्ष्य बना लेता है, कभी भी सच्ची शांति को नहीं जान सकता। जबकि इच्छाओं में रहते हुए भी उनसे ऊपर उठ जाना — यही आत्मिक परिपक्वता है।
शांति कामनाओं की पूर्ति से नहीं, अपितु कामनाओं की समाप्ति से मिलती है।
यही इस श्लोक का गूढ़ संदेश है।