Bhagavad Gita: Hindi, Chapter 2, Sloke 72

मूल श्लोक: 72

एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वाऽस्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति॥

शब्दार्थ

  • एषा — यह
  • ब्राह्मी स्थिति: — ब्रह्म में स्थित अवस्था, ब्रह्म-स्थित आत्मिक चेतना
  • पार्थ — हे पार्थ (अर्जुन)
  • न एनाम् — इसको (स्थिति को)
  • प्राप्य — प्राप्त करके
  • विमुह्यति — मोहित नहीं होता, भ्रमित नहीं होता
  • स्थित्वा — स्थित होकर, टिककर
  • अस्याम् — इस (स्थित) में
  • अन्तकालेऽपि — मृत्यु के समय भी
  • ब्रह्म-निर्वाणम् — ब्रह्म में लीन हो जाना, मोक्ष
  • ऋच्छति — प्राप्त करता है

हे पार्थ! इस अवस्था में रहने वाली प्रबुद्ध आत्मा जब ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर लेती है, वह फिर कभी भ्रमित नहीं होती। मृत्यु के समय यह सिद्ध पुरुष जन्म और मृत्यु के बंधन से मुक्त हो जाता है और भगवान के परम धाम में प्रवेश करता है।

विस्तृत भावार्थ

भगवान श्रीकृष्ण इस अंतिम श्लोक में पूरे अध्याय का सार प्रस्तुत कर रहे हैं। वे “ब्राह्मी स्थिति” को जीवन का अंतिम लक्ष्य बताते हैं — एक ऐसी चेतना की अवस्था जहाँ व्यक्ति स्थिर, सम, निर्विकार और आत्मज्ञानी होता है।

इस स्थिति में जो व्यक्ति प्रतिष्ठित हो जाता है, उसका मोह समाप्त हो जाता है। वह संसार के आकर्षण, भय, दुख, सुख, हानि-लाभ से प्रभावित नहीं होता। यहाँ “विमुह्यति” शब्द दर्शाता है कि ऐसा व्यक्ति आत्मा और शरीर के अंतर को भलीभांति समझ जाता है, इसलिए वह कभी भी मोह-माया के भ्रम में नहीं पड़ता।

“अन्तकालेऽपि” — अर्थात यदि जीवन के अंत में भी वह इस स्थिति में स्थित हो जाए, तब भी वह ब्रह्म में लीन हो सकता है। यह श्लोक दिखाता है कि मोक्ष का द्वार सदा खुला है, बशर्ते मनुष्य आत्मज्ञान की इस अवस्था को प्राप्त कर ले।

भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण

दार्शनिक दृष्टिकोण

यह श्लोक भगवद्गीता के दूसरे अध्याय के समापन पर आत्मज्ञान की चरम अवस्था की परिभाषा देता है। ब्राह्मी स्थिति वह अवस्था है जहाँ:

  • आत्मा को शरीर से भिन्न समझा जाता है
  • सुख-दुःख, लाभ-हानि में समभाव रहता है
  • कर्म फल की आसक्ति समाप्त हो जाती है
  • मन ब्रह्म में स्थिर हो जाता है

यह स्थिरता केवल एक साधना नहीं बल्कि मुक्ति का द्वार है। और यह निर्वाण — आत्मा का ब्रह्म में पूर्ण विलय — केवल मृत्यु के बाद नहीं, जीवित रहते हुए भी अनुभव किया जा सकता है।

प्रतीकात्मक अर्थ

  • ब्राह्मी स्थिति — ब्रह्मस्वरूप चेतना
  • विमोह — माया का प्रभाव
  • अन्तकाल — शरीर के अंतिम क्षण या आत्मिक जागृति का अंतिम चरण
  • ब्रह्मनिर्वाण — निर्वाण, मोक्ष, आत्मा की परमात्मा में पूर्ण लय

आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा

  • ब्राह्मी स्थिति एक चेतन अवस्था है, जहाँ मन और आत्मा ब्रह्म से एकरूप हो जाते हैं।
  • यह स्थिति दुःख, भय और वासनाओं से परे है।
  • आत्मज्ञान, समत्व और बुद्धियोग से यह अवस्था प्राप्त की जा सकती है।
  • मृत्यु के समय इस स्थिति में स्थित रहना मोक्ष का सीधा द्वार है।
  • जीवन भर की साधना का फल इसी में समाहित है।

आत्मचिंतन के प्रश्न

क्या मैं अपने जीवन में ब्राह्मी स्थिति की ओर अग्रसर हूँ?
क्या मैं सुख-दुख में समभाव रखने का अभ्यास करता हूँ?
क्या मैं आत्मा और शरीर को भिन्न समझकर कर्म करता हूँ?
क्या मृत्यु के समय भी मैं स्थिर रह सकूँगा?
क्या मेरा साधना और जीवन ब्रह्मनिर्वाण की दिशा में है?

निष्कर्ष

श्रीमद्भगवद्गीता का यह अंतिम श्लोक हमें यह दिखाता है कि गीता केवल एक उपदेश नहीं, बल्कि मोक्ष का स्पष्ट मार्ग है। ब्राह्मी स्थिति ही वह अवस्था है जहाँ मनुष्य अपनी आत्मा को ब्रह्म में स्थित करता है।

जो भी इस स्थिति को प्राप्त करता है — वह जीवन में भ्रम से मुक्त होता है, मृत्यु में भय से मुक्त होता है, और मृत्यु के बाद मोक्ष को प्राप्त करता है।

यह श्लोक आत्मा के ब्रह्म से मिलन की घोषणा है।
यह शांति, मुक्ति और चिरस्थायी आनन्द की मंज़िल का संकेत है।

“स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति” — यही गीता का वचन है, यही उसका वादा।

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