मूल श्लोक: 71
विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति ॥71॥
शब्दार्थ
- विहाय — त्याग करके
- कामान् — कामनाएँ, इच्छाएँ
- यः — जो
- सर्वान् — सभी
- पुमान् — मनुष्य
- चरति — विचरण करता है, जीवन जीता है
- निःस्पृहः — स्पृहा (लालसा) से रहित, आकांक्षा रहित
- निर्ममः — ममता से रहित
- निरहङ्कारः — अहंकार से रहित
- सः — वही
- शान्तिम् — शांति, आत्मिक शांति
- अधिगच्छति — प्राप्त करता है
जिस मुनष्य ने अपनी सभी भौतिक इच्छाओं का परित्याग कर दिया हो और इन्द्रिय तृप्ति की लालसा, ममत्व के भाव और अंहकार से रहित हो गया हो, वह पूर्ण शांति को प्राप्त करता है।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में श्रीकृष्ण जीवन में शांति प्राप्त करने के मूलभूत सिद्धांत को उजागर कर रहे हैं। वे बताते हैं कि आत्मिक शांति केवल बाह्य परिस्थितियों को बदलने से नहीं, बल्कि आंतरिक इच्छाओं, ममता और अहंकार के त्याग से प्राप्त होती है।
“विहाय कामान् सर्वान्” का तात्पर्य है कि जब व्यक्ति समस्त सांसारिक इच्छाओं को त्याग देता है — जैसे धन, पद, यश, इंद्रियभोग — तब वह वास्तव में स्वतंत्र होता है। लेकिन केवल त्याग पर्याप्त नहीं है। श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं कि “निःस्पृहः” अर्थात लालसा से रहित होना भी आवश्यक है — अर्थात अंदर से भी इच्छा का क्षय।
फिर वे कहते हैं, “निर्ममः” — ममता का अभाव। ममता वह बंधन है जो “मेरा–तेरा” की भावना से जुड़ा होता है। जब तक यह है, मन अशांत रहता है।
और “निरहंकारः” — जब व्यक्ति स्वयं को कर्ता या अहम का केंद्र मानता है, तब तक वह स्वयं को ब्रह्म से अलग अनुभव करता है। जब यह भाव हट जाता है, तो व्यक्ति ब्रह्मभाव में स्थित होता है।
अंततः ऐसा व्यक्ति ही “शान्तिमधिगच्छति” — स्थायी और आत्मिक शांति को प्राप्त करता है।
भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण
दार्शनिक दृष्टिकोण
यह श्लोक आत्मसंयम और वैराग्य का शुद्धतम स्वरूप प्रस्तुत करता है। श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं कि संसार में रहते हुए भी अगर कोई व्यक्ति अपनी अंतःचेतना को इच्छाओं, ममता और अहंकार से मुक्त कर लेता है, तो वह सच्ची आत्मिक शांति को प्राप्त करता है।
यह शांति अस्थायी सुखों से नहीं, बल्कि आत्मज्ञान और त्याग से आती है।
प्रतीकात्मक अर्थ
- कामान् — मन की इच्छाएँ, जो बंधन का कारण बनती हैं
- निःस्पृहः — विरक्त भाव, इच्छाओं से उपर उठा हुआ चित्त
- निर्ममः — मोह व “मेरा” की भावना का क्षय
- निरहङ्कारः — ‘मैं’ के अभिमान का विनाश
- शान्तिः — आत्मा की विशुद्ध, शाश्वत स्थिति
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- इच्छाओं का त्याग ही मानसिक शांति का प्रथम सोपान है।
- ममता और अहंकार, व्यक्ति को बाह्य सुखों में उलझाकर आत्मा से दूर करते हैं।
- सच्ची शांति केवल ध्यान और पूजा से नहीं, बल्कि अंतर को शुद्ध कर पाने से मिलती है।
- अहंकार का त्याग, ब्रह्म से एकत्व की अनुभूति में सहायक है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मैं सांसारिक इच्छाओं से मुक्त होकर जी रहा हूँ?
क्या मेरे भीतर किसी वस्तु या व्यक्ति के लिए ममता अत्यधिक है?
क्या मेरी शांति बाहरी परिस्थितियों पर निर्भर है या भीतर से आती है?
क्या मैं अपने “मैं” भाव से ऊपर उठ सका हूँ?
क्या मैं आत्मा की उस स्थिति में पहुँच रहा हूँ जहाँ इच्छाएँ शांत हो जाती हैं?
निष्कर्ष
श्रीकृष्ण का यह श्लोक हमें बताता है कि जीवन में सच्ची और स्थायी शांति केवल बाहरी सुख-सुविधाओं से नहीं, बल्कि भीतर की इच्छाओं, ममता और अहंकार के समूल नाश से प्राप्त होती है।
जिसने त्याग किया है, वही मुक्त हुआ है। और जो मुक्त है, वही शांत है।
ऐसा संयमी, विवेकी और आत्मज्ञानी व्यक्ति ही संसार में रहते हुए भी संसार से परे होता है और वही वास्तव में शांति — परम शांति — का अनुभव करता है। यही भगवद्गीता का मूल संदेश है — “त्याग के माध्यम से शांति और मोक्ष की प्राप्ति।”