मूल श्लोक: 13
यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्॥
शब्दार्थ
- यज्ञ-शिष्ट-आशिनः — यज्ञ के शेष अन्न को खाने वाले (ईश्वर को अर्पित करके खाने वाले)
- सन्तः — सज्जन पुरुष, संतजन
- मुच्यन्ते — मुक्त हो जाते हैं
- सर्व-किल्बिषैः — सभी पापों से
- भुञ्जते — भोगते हैं, खाते हैं
- ते — वे
- तु — लेकिन
- अघम् — पाप
- पापाः — पापी
- ये — जो
- पचन्ति — पकाते हैं, भोजन बनाते हैं
- आत्मकारणात् — केवल अपने लिए, स्वार्थवश
आध्यात्मिक मनोवत्ति वाले जो लोग यज्ञ में अर्पित करने के पश्चात् भोजन ग्रहण करते हैं, वे सभी प्रकार के पापों से मुक्त हो जाते हैं किन्तु जो अपनी इन्द्रिय तृप्ति के लिए भोजन बनाते हैं, वे वास्तव में पाप अर्जित करते हैं।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण हमें भोजन और जीवन की पवित्रता की भावना सिखा रहे हैं। वे कहते हैं कि भोजन केवल शरीर पोषण का साधन नहीं है, बल्कि यह एक आध्यात्मिक कर्म भी है। जब हम भोजन को यज्ञ की भावना से, भगवान को अर्पण करके, सेवा भाव से ग्रहण करते हैं, तब वह पवित्र हो जाता है और हमें पापों से मुक्त करता है।
परंतु जो लोग केवल अपनी इन्द्रियों की तृप्ति के लिए, स्वार्थ से, बिना किसी आस्था या अर्पण के खाते हैं — वे वास्तव में पाप का ही भक्षण कर रहे हैं। यह भोजन उनकी आत्मा को शुद्ध करने के बजाय उसे और अधिक बंधन में डाल देता है।
भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण
दार्शनिक दृष्टिकोण
गीता का यह श्लोक बताता है कि भोजन केवल भौतिक कृति नहीं, बल्कि आध्यात्मिक आचरण का हिस्सा है। “यज्ञशिष्ट” का अर्थ है — ऐसा अन्न जो पहले ईश्वर को अर्पित किया गया हो, जिसमें सेवा और त्याग की भावना हो।
इस विचार में यह निहित है कि हर कर्म, यहाँ तक कि खाना भी, ईश्वर को समर्पित हो। ऐसे कार्य हमारी आत्मा को शुद्ध करते हैं और हमें कर्मबंधन से मुक्त करते हैं। यह निष्काम कर्मयोग का ही एक व्यावहारिक रूप है।
वहीं दूसरी ओर, जो लोग स्वार्थवश, बिना अर्पण और सेवा-भाव के, केवल अपने सुख के लिए खाते हैं — वे “पचन्त्यात्मकारणात्” के अंतर्गत आते हैं। वे उस भोजन से केवल अपना शरीर तृप्त करते हैं, आत्मा नहीं।
प्रतीकात्मक अर्थ
- यज्ञ — ईश्वर को समर्पण, सेवा और कर्तव्य की भावना
- शिष्ट — शेष, यानी वह जो भगवान के लिए पहले अर्पित किया गया
- सन्त — सत्कर्मी, निःस्वार्थ जीव
- भुञ्जते पापा — जो बिना सेवा-भाव के उपभोग करते हैं, वे सांसारिक पाप का भोग करते हैं
- आत्मकारणात् — केवल अपनी इच्छाओं के लिए कर्म करना
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- हर कार्य को यज्ञभाव से करना ही आत्मिक उन्नति का मार्ग है।
- भोजन को भी एक पूजा की तरह मानना चाहिए — वह भगवान को अर्पित कर के ग्रहण करें।
- स्वार्थी जीवन जीने वाले व्यक्ति पाप के भागी होते हैं।
- सेवा, समर्पण और ईश्वर को प्राथमिकता देना ही पवित्रता का मार्ग है।
- उपभोग से अधिक जरूरी है — कर्तव्य और भावना।
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मैं भोजन को केवल स्वाद और इन्द्रिय सुख के लिए करता हूँ या ईश्वर की कृपा समझकर उसे स्वीकार करता हूँ?
क्या मेरे जीवन के कार्य केवल मेरी तृप्ति के लिए हैं या उनमें सेवा और अर्पण की भावना भी है?
क्या मैं अपने कर्मों को यज्ञ बना पा रहा हूँ?
क्या मैं उस भोजन को ग्रहण कर रहा हूँ जो आत्मा को शुद्ध करता है या जो मुझे और पापों में बांधता है?
निष्कर्ष
श्रीकृष्ण इस श्लोक के माध्यम से हमें सिखाते हैं कि भोजन भी अध्यात्म का माध्यम बन सकता है, यदि उसमें समर्पण, सेवा और ईश्वर भावना हो। जीवन का प्रत्येक कार्य — खाना, बोलना, काम करना — यदि यज्ञ के रूप में किया जाए, तो वह आत्मा को बंधन से मुक्त करता है।
परंतु जो केवल स्वार्थ से कर्म करता है — चाहे वह भोजन हो या व्यवसाय — वह पाप और बंधन का भागी बनता है। इसलिए श्रीकृष्ण हमें निष्काम, समर्पित जीवन जीने का मार्ग दिखाते हैं।
“भोजन न केवल पेट का,
ईश्वर की प्रसाद भावना से हो जीवन व्यर्थ न जाता।
जो कर्म करे सेवा भाव से,
उसके लिए हर निवाला मोक्ष का द्वार बन जाता।”