मूल श्लोक: 14
अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः॥
शब्दार्थ
- अन्नात् — अन्न से / खाद्य पदार्थों से
- भवन्ति — उत्पन्न होते हैं / जीते हैं
- भूतानि — प्राणी, जीव
- पर्जन्यात् — वर्षा से
- अन्नसम्भवः — अन्न की उत्पत्ति होती है
- यज्ञात् — यज्ञ से
- भवति — उत्पन्न होता है
- पर्जन्यः — वर्षा / जल
- यज्ञः — यज्ञ (त्यागमय कर्म)
- कर्मसमुद्भवः — कर्म से उत्पन्न हुआ है
सभी लोग अन्न पर निर्भर हैं और अन्न वर्षा से उत्पन्न होता है, वर्षा यज्ञ का अनुष्ठान करने से होती है और यज्ञ निर्धारित कर्मों का पालन करने से सम्पन्न होता है।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में श्रीकृष्ण प्रकृति, मानव और धर्म के बीच के गहरे तात्त्विक संबंध को समझाते हैं। वे बताते हैं कि संपूर्ण जीवन-चक्र किस प्रकार परस्पर निर्भर है:
- भूतानि अन्नात् भवन्ति — सभी जीवों का जीवन अन्न पर निर्भर है।
- अन्नं पर्जन्यात् सम्भवः — अन्न की उत्पत्ति वर्षा से होती है।
- पर्जन्यः यज्ञात् भवति — वर्षा यज्ञ से होती है (यानी जब मानव प्रकृति और देवताओं के साथ संतुलित संबंध में होता है)।
- यज्ञः कर्मसमुद्भवः — यज्ञ, कर्म यानी कर्तव्य पर आधारित होता है।
इस प्रकार, कर्म ही मूल कारण है जो अंततः पूरे ब्रह्मांड की व्यवस्था को चलाता है।
भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण
दार्शनिक दृष्टिकोण
यह श्लोक “सहअस्तित्व” (co-existence) की पराकाष्ठा है। श्रीकृष्ण यह स्पष्ट करते हैं कि मानव का कर्तव्यपालन केवल व्यक्तिगत नहीं, बल्कि ब्रह्मांडीय संतुलन में योगदान है।
- यदि मनुष्य यज्ञ करता है — अर्थात सेवा, दान, नैतिक जीवन और परस्पर हित के लिए कर्म — तो देवता प्रसन्न होते हैं और वर्षा प्रदान करते हैं।
- वर्षा से अन्न उत्पन्न होता है और उससे सभी जीवों का जीवन चलता है।
इस चक्र को कोई एक कड़ी तोड़ दे — जैसे मनुष्य कर्म और यज्ञ छोड़ दे — तो पूरी व्यवस्था बिगड़ जाती है। इसलिए कर्म, यज्ञ, वर्षा, अन्न और जीवन — ये सब एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं।
प्रतीकात्मक अर्थ
- अन्न — जीवन का आधार, संसाधन
- पर्जन्य — प्रकृति, जल, वर्षा, पोषण
- यज्ञ — परोपकार, नैतिक कर्म, संतुलन
- कर्म — कर्तव्य, जीवन की गति और ऊर्जा
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- जीवन केवल भोग का विषय नहीं है; यह कर्तव्य और समर्पण पर आधारित है।
- यदि हम केवल उपभोग करेंगे और कर्म व यज्ञ को छोड़ देंगे, तो संपूर्ण जीवनचक्र टूट जाएगा।
- नैतिक और सामाजिक कर्तव्यों का पालन करना एक प्रकार का यज्ञ है — जो ब्रह्मांड को संतुलित रखता है।
- यह श्लोक पर्यावरण, कृषि, और संसाधनों के उपयोग को भी दिव्य व्यवस्था से जोड़ता है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मैं केवल अन्न और संसाधन उपभोग कर रहा हूँ या उनके लिए यज्ञ रूपी कर्म भी कर रहा हूँ?
क्या मेरी जीवनशैली प्रकृति के संतुलन में सहयोग कर रही है?
क्या मैं अपने कर्म को यज्ञभावना से करता हूँ या केवल निजी लाभ की दृष्टि से?
क्या मैं उस चक्र का हिस्सा हूँ जो जीवन को पोषित करता है — या जो उसे नष्ट कर रहा है?
निष्कर्ष
भगवद्गीता का यह श्लोक हमें स्मरण कराता है कि जीवन एक दैवी चक्र है — जिसमें प्रत्येक कर्म, प्रत्येक भावना, और प्रत्येक योगदान मायने रखता है।
कर्म → यज्ञ → वर्षा → अन्न → जीवन — यह श्रृंखला हमें जीवन के गहरे सत्य को समझाती है:
जब तक मनुष्य यज्ञस्वरूप कर्म करता रहेगा, तब तक प्रकृति संतुलित रहेगी।
यदि यह संतुलन टूट गया, तो अन्न, जल और जीवन सभी संकट में पड़ेंगे।
इसलिए, श्रीकृष्ण हमें कर्मयोग का, यज्ञमय जीवन का, और ब्रह्मांडीय संतुलन का आह्वान कर रहे हैं।