मूल श्लोक: 16
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति॥
शब्दार्थ
- एवम् — इस प्रकार
- प्रवर्तितं — चलायमान / स्थापित किया गया
- चक्रं — चक्र, जीवन-चक्र, सृष्टिचक्र
- न अनुवर्तयति — अनुसरण नहीं करता
- इह — इस संसार में
- यः — जो
- अघायुः — पापपूर्ण जीवन जीने वाला
- इन्द्रियारामः — इन्द्रियों में ही रमता हुआ, विषयभोगी
- मोघं — व्यर्थ, निष्फल
- पार्थ — हे पार्थ (अर्जुन)
- स जीवति — वह जीता है / उसका जीवन चलता है
हे पार्थ! जो मनुष्य वेदों द्वारा स्थापित यज्ञ कर्म के इस चक्र का पालन नहीं करते, वे पाप अर्जित करते हैं, वे केवल अपनी इन्द्रियों की तृप्ति के लिए जीवित रहते हैं, वास्तव में उनका जीवन व्यर्थ ही है।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में श्रीकृष्ण कर्म के दैवी चक्र को न मानने वाले व्यक्ति की स्थिति को स्पष्ट करते हैं। उन्होंने पिछले श्लोकों में जो चक्र बताया — कर्म → यज्ञ → वर्षा → अन्न → जीवन, उसी का संदर्भ लेकर कहते हैं:
- यह दैवी चक्र सृष्टि के संतुलन के लिए परम आवश्यक है।
- जो व्यक्ति इस चक्र को नहीं अपनाता — अर्थात न कर्म करता है, न यज्ञ, न समाज के लिए कुछ करता है — वह केवल अपने इन्द्रियों के सुख में लिप्त रहता है।
श्रीकृष्ण उसे “अघायुः” कहते हैं — जिसका जीवन पाप में बीत रहा है।
“मोघं स जीवति” — वह जी रहा है, पर उसका जीवन व्यर्थ है। केवल खाना-पीना और भोग करना, बिना कर्तव्य के, एक उद्देश्यहीन जीवन है।
भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण
दार्शनिक दृष्टिकोण
भगवद्गीता का यह श्लोक कर्तव्य की महत्ता को अत्यंत तीव्रता से रेखांकित करता है। श्रीकृष्ण यहाँ चेतावनी देते हैं कि:
- जो व्यक्ति केवल इन्द्रियों के सुख में डूबा रहता है और समाज, प्रकृति, और धर्म के चक्र का पालन नहीं करता — वह केवल “भोगी” बन जाता है, “योगी” नहीं।
- उसका जीवन आत्म-विकास की ओर नहीं बढ़ता, बल्कि पशुत्व की ओर गिरता है।
ऐसा व्यक्ति न केवल आत्मघाती है, बल्कि समाज और प्रकृति के लिए भी बोझ बनता है।
प्रतीकात्मक अर्थ
- चक्र — सृष्टि का संतुलन (कर्तव्य, यज्ञ, प्रकृति, जीवन)
- इन्द्रियारामः — वह जो केवल काम-वासना, स्वाद, रूप, गंध में खोया है
- अघायुः — जिसका जीवन अधर्म और पाप से भर गया है
- मोघं जीवति — उसका जीवन बाह्य रूप से चलता है, पर आत्मिक रूप से मृतप्राय है
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- जीवन केवल उपभोग नहीं, कर्तव्य और योगदान है।
- यदि कोई व्यक्ति इस व्यवस्था का भाग नहीं बनता, वह केवल स्वयं के लिए जीता है, तो उसका जीवन व्यर्थ और पापमय माना जाता है।
- समाज में हर प्राणी की भूमिका है — जब वह भूमिका निभाई जाती है, तभी सामूहिक उन्नति संभव है।
- निष्क्रियता (अकर्म) भी एक प्रकार का पाप है, यदि वह स्वार्थ से प्रेरित हो।
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मैं केवल अपनी इन्द्रियों की तृप्ति के लिए जी रहा हूँ?
क्या मैं सृष्टि के चक्र — सेवा, यज्ञ, कर्तव्य — का हिस्सा हूँ?
क्या मेरा जीवन उद्देश्यपूर्ण है या केवल भोग के लिए है?
क्या मैं समाज, प्रकृति और धर्म के प्रति उत्तरदायी हूँ?
निष्कर्ष
इस श्लोक में श्रीकृष्ण जीवन की गुणवत्ता को लेकर एक कठोर लेकिन आवश्यक सच बताते हैं:
जो व्यक्ति अपने कर्तव्य से विमुख होकर केवल विषयों में रमता है, उसका जीवन धर्म से, अर्थ से और आत्मविकास से वंचित हो जाता है।
कर्म-यज्ञ-सृष्टि का चक्र केवल प्रकृति की नहीं, आध्यात्मिक उन्नति की भी नींव है।
जो इस चक्र में नहीं आता, वह न स्वयं को ऊँचा उठा पाता है, न दूसरों के लिए कुछ कर पाता है — उसका जीवन केवल शरीर के लिए है, आत्मा के लिए नहीं।