मूल श्लोक: 17
यस्यात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते॥
शब्दार्थ
- यस्यम् — जिसका
- आत्मरतिः एव — केवल आत्मा में ही रमण (आनंद लेना)
- स्यात् — होता है
- आत्मतृप्तः — आत्मा में ही तृप्त रहने वाला
- मानवः — मनुष्य
- आत्मनि एव — केवल आत्मा में
- सन्तुष्टः — संतुष्ट रहने वाला
- तस्य — उसके लिए
- कार्यं — कोई कार्य, कर्तव्य
- न विद्यते — नहीं है
लेकिन जो मनुष्य आत्मानंद में स्थित रहते हैं तथा जो प्रबुद्ध और अपने में ही तुष्ट होते हैं, उनके लिए कोई नियत कर्त्तव्य नहीं होता।

विस्तृत भावार्थ
श्रीभगवान इस श्लोक में एक ऐसे व्यक्ति की स्थिति का वर्णन करते हैं जो पूर्ण रूप से आत्मज्ञान प्राप्त कर चुका है। वह व्यक्ति अपने अंदर ही रमण करता है — उसका ध्यान, संतोष और तृप्ति बाह्य वस्तुओं या कर्मों पर निर्भर नहीं होता। वह आत्मा की शांति और परिपूर्णता में स्थिर हो जाता है।
ऐसे व्यक्ति के लिए कोई कर्तव्य या कर्म का बंधन नहीं रह जाता क्योंकि वह पहले ही उस स्थिति को प्राप्त कर चुका है जिसके लिए कर्म किया जाता है — अर्थात् आत्मतृप्ति, संतोष और शांति।
यहाँ श्रीकृष्ण कर्म का निषेध नहीं कर रहे, बल्कि यह बता रहे हैं कि आत्मज्ञानी व्यक्ति के लिए कर्म करने या न करने से कोई अंतर नहीं पड़ता क्योंकि वह किसी फल की अपेक्षा नहीं करता। लेकिन सामान्य व्यक्ति के लिए यह स्थिति अभी प्राप्त नहीं हुई है, इसलिए उसे अपने धर्म अनुसार कर्म करते रहना चाहिए।
भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण
दार्शनिक दृष्टिकोण
यह श्लोक अद्वैत वेदांत के मूल तत्त्व — आत्मा की पूर्णता — को प्रतिपादित करता है। जब एक साधक आत्मा को जान लेता है और उसमें पूर्ण रूप से तृप्त हो जाता है, तब वह कर्म के चक्र से ऊपर उठ जाता है। उसका जीवन बाह्य भोगों से नहीं, बल्कि आंतरिक संतोष से संचालित होता है।
इस स्थिति को “स्वरूपस्थित आत्मज्ञानी” कहा जाता है। वह संसार में रहता हुआ भी संसार से परे होता है।
प्रतीकात्मक अर्थ
- आत्मरति — आत्मा में ही आनंद लेना
- आत्मतृप्ति — आत्मा की शांति में संतुष्टि
- संतुष्टता — किसी बाहरी वस्तु या परिस्थिति से निर्भरता न होना
- कार्य — सांसारिक या वैदिक कर्तव्य
- न विद्यते — इस स्थिति में कर्तव्य के अर्थ ही बदल जाते हैं
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- आत्मज्ञानी व्यक्ति बाह्य कर्मों से बंधा नहीं होता, क्योंकि वह आत्मा में स्थित होता है।
- आत्मा में ही रमण करना उच्चतम साधना की अवस्था है।
- जब व्यक्ति भीतर की तृप्ति पा लेता है, तब उसे बाहरी पुष्टि की आवश्यकता नहीं रहती।
- यह श्लोक हमें आत्म-निर्भरता, आत्म-चिंतन और आत्मसंतोष की ओर प्रेरित करता है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मेरी संतुष्टि बाहरी वस्तुओं पर निर्भर है या मेरे अंदर की शांति पर?
क्या मैं कभी आत्मा में रमण का अनुभव करता हूँ — ध्यान, मौन या साधना के माध्यम से?
क्या मैं कर्म करता हूँ किसी अपेक्षा से, या केवल कर्तव्य समझकर?
क्या मैं आत्मा की शुद्धता और पूर्णता को पहचानने की दिशा में बढ़ रहा हूँ?
निष्कर्ष
यह श्लोक हमें एक आत्मज्ञानी, आत्मतृप्त व्यक्ति की दिव्य स्थिति का परिचय देता है। वह न तो बाहरी संसार में भटकता है, न ही किसी कर्म में फँसता है। वह आत्मा में ही रमण करता है, आत्मा में ही तृप्त रहता है, और आत्मा में ही संतुष्ट होता है।
ऐसे व्यक्ति के लिए कर्म बंधन नहीं रह जाता — वह बंधन से मुक्त हो चुका होता है। यह स्थिति मोक्ष की ही एक झलक है, जो जीवन रहते हुए भी प्राप्त की जा सकती है।
“जिसने आत्मा में ही पा ली तृप्ति की निधि,
उसे ना चाहिए यज्ञ, ना पूजा, ना सिधि।
वह आत्मा में ही आनंदमय होता है,
कर्मरहित होकर भी, कर्म से श्रेष्ठ होता है।”