मूल श्लोक: 20
कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः।
लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि॥
शब्दार्थ
- कर्मणैव — केवल कर्म द्वारा
- हि — निश्चय ही
- संसिद्धिम — पूर्ण सिद्धि, सफलता, या परिपूर्णता
- आस्थिताः — स्थित, धारण किये हुए
- जनकाः — राजा जनक जैसे महान पुरुष
- अयः — इत्यादि (और अन्य)
- लोकसंग्रहमेव — लोकों के कल्याण और समष्टि हित के लिए
- अपि — भी
- सम्पश्यन् — देखते हुए, समझते हुए
- कर्तुमर्हसि — तुम्हें करना चाहिए
राजा जनक और अन्य महापुरुषों ने अपने नियत कर्मों का पालन करते हुए सिद्धि प्राप्त की थी इसलिए तुम्हें भी अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए समाज के कल्याण के लिए अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन को समझा रहे हैं कि:
- जो लोग महान आध्यात्मिक उपलब्धि प्राप्त कर चुके हैं, जैसे राजा जनक, वे भी कर्म से ही सिद्धि प्राप्त हुए हैं।
- यह सिद्धि केवल ज्ञान या ध्यान से नहीं, बल्कि कर्तव्यपरायण कर्म से संभव है।
- मानव जीवन का उद्देश्य केवल स्व-कल्याण नहीं, बल्कि लोकसंग्रह, अर्थात समाज और संसार के हित के लिए भी कर्म करना है।
- इसलिए अर्जुन को चाहिए कि वह अपने धर्म और कर्तव्य का पालन करते हुए, निष्काम भाव से कर्म करे।
यहाँ “लोकसंग्रह” का अर्थ है — समष्टि के लिए कर्म करना, जिससे समाज में संतुलन और समृद्धि बनी रहे।
भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण
दार्शनिक दृष्टिकोण
यह श्लोक कर्मयोग की महत्ता को पुनः रेखांकित करता है।
- कर्म से परे कोई मोक्ष या सिद्धि नहीं।
- योग या ज्ञान भी कर्म के बिना अधूरा है।
- महान पुरुषों ने कर्म को साधना का सर्वोत्तम मार्ग माना।
- एक व्यक्ति का कर्म केवल उसका व्यक्तिगत उद्देश्य नहीं, बल्कि समाज और संसार के कल्याण हेतु होना चाहिए।
यहाँ कर्म को केवल भौतिक क्रिया न समझें, बल्कि उसे धार्मिक, नैतिक, सामाजिक उत्तरदायित्व के रूप में लें।
प्रतीकात्मक अर्थ
- जनकादयः — वे महान ऋषि-मुनि, राजाओं या ज्ञानी पुरुष, जो कर्म योग के आदर्श हैं।
- संसिद्धि — कर्म योग की सिद्धि, जो मोक्ष या आत्म-पूर्णता तक ले जाती है।
- लोकसंग्रह — समष्टि हित, समाज कल्याण, और धर्म की रक्षा।
- कर्तुमर्हसि — यह कर्म करना तेरा कर्तव्य है।
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- कर्म से ही जीवन में स्थिरता और सफलता मिलती है।
- निष्काम कर्म से मानव जीवन का उच्चतम उद्देश्य सिद्ध होता है।
- अपने कर्तव्य का निर्वाह करते हुए समाज के प्रति दायित्व भी निभाना चाहिए।
- आत्मिक उन्नति केवल स्वार्थहीन सेवा और कर्म से संभव है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मैं अपने कर्मों को केवल अपने लिए करता हूँ या समाज के कल्याण के लिए भी?
क्या मैं अपने कर्तव्य को निष्ठा और समर्पण के साथ निभा रहा हूँ?
क्या मेरे कर्म निष्काम हैं, या उनसे मुझे कोई फल पाने की इच्छा है?
क्या मैं कर्म के माध्यम से अपनी आत्मा की पूर्णता की ओर बढ़ रहा हूँ?
निष्कर्ष
श्रीकृष्ण इस श्लोक में अर्जुन को यह संदेश दे रहे हैं कि:
सत्य, ज्ञान, और मोक्ष सभी कर्मयोग से ही संभव हैं।
महान पुरुषों ने कर्म को ही साधना का मार्ग माना है।
इसलिए अर्जुन को भी अपने कर्तव्य का निर्वाह कर, लोककल्याण में रत होकर कर्म करना चाहिए।
यही जीवन का वास्तविक धर्म और सर्वोच्च सिद्धि है।
यह श्लोक कर्म के महत्व को समष्टि और व्यक्तिगत दोनों स्तरों पर समझाने वाला आदर्श संदेश है।