मूल श्लोक: 22
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन ।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ॥
शब्दार्थ
- न मे — मुझमें नहीं
- पार्थ — अर्जुन, हे पार्थ
- अस्ति — है
- कर्तव्यं — करने योग्य कर्तव्य / दायित्व
- त्रिषु लोकेषु — तीनों लोकों (स्वर्ग, पृथ्वी, पाताल) में
- किञ्चन — कुछ भी
- न अनवाप्तम् — न अवाप्त हुआ (जो प्राप्त नहीं हुआ)
- अवाप्तव्यं — जो प्राप्त किया जाना है
- वर्त — मैं रहता हूँ
- एव — निश्चित रूप से
- च कर्मणि — कर्म करता हूँ
हे पार्थ! तीनों लोकों में मेरे लिए कोई कर्म निश्चित नहीं है, न ही मुझे किसी पदार्थ का अभाव है और न ही मुझमें कुछ पाने की अपेक्षा है फिर भी मैं कर्म करता हूँ।

विस्तृत भावार्थ
भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को बतलाते हैं कि उनके लिए संसार में ऐसा कोई कर्तव्य या कार्य नहीं बचा है जिसे पूरा किया जाना बाकी हो या जिसे प्राप्त करना शेष हो। सब कुछ पूर्ण है और सभी उद्देश्य सिद्ध हो चुके हैं। फिर भी वे कर्म करते रहते हैं।
यह दर्शाता है कि भगवान कर्म से नहीं जुड़े हैं, वे कर्म के बंधनों से मुक्त हैं। उनका कर्म कोई फल की इच्छा या आवश्यकता से प्रेरित नहीं है, बल्कि धर्म के निर्वाह और समस्त सृष्टि के पालन हेतु है।
यह श्लोक कर्मयोग की गहराई को समझाता है कि कर्म का आशय केवल फल प्राप्ति नहीं, बल्कि कर्म को कर्म रूप में करना और उसे समर्पित भाव से निभाना है।
भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण
दार्शनिक दृष्टिकोण
यह श्लोक भगवद्गीता के ब्रह्मदृष्टिकोण को उद्घाटित करता है। ईश्वर पूर्णतया स्वतंत्र और सम्पूर्ण है। उन्हें न तो किसी वस्तु की आवश्यकता है, न कोई कर्तव्य अधूरा है। फिर भी वह कर्म करते हैं ताकि जीवों के लिए मार्गदर्शन स्थापित हो।
श्रीकृष्ण यहाँ कर्म के निष्काम रूप की महत्ता समझाते हैं — कर्म करते रहना चाहिए बिना किसी स्वार्थ या फल की चाह के।
प्रतीकात्मक अर्थ
- त्रिषु लोकेषु — समस्त लोक
- कर्तव्यं न होना — पूर्णता, सिद्धि
- वर्त — कर्म में लगे रहना
- कर्मणि — कर्तव्य पालन
यह हमें बताता है कि कर्म का तात्पर्य केवल परिणाम नहीं, बल्कि धर्म और दायित्व है। जब कोई व्यक्ति कर्म को केवल कर्तव्य समझकर करता है, तब वह भगवान के समान होता है।
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- कर्म का अर्थ केवल फल प्राप्ति नहीं, बल्कि अपने धर्म का पालन है।
- ईश्वर ने सारे कर्मों का निर्वाह किया और फिर भी कर्म करते रहते हैं, यह हमें कर्मयोग की प्रेरणा देता है।
- हम भी अपने कर्तव्यों को बिना फल की इच्छा के करते रहें, यही कर्मयोग की महान सीख है।
- कर्म के प्रति निरंतरता और समर्पण आत्मा के उन्नयन का मार्ग है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मैं अपने कर्मों को केवल फल के लिए करता हूँ या कर्तव्यबोध से?
क्या मैं अपने कर्तव्यों को पूरी निष्ठा और निरंतरता से निभा रहा हूँ?
क्या मुझे अपने कर्मों के परिणाम से डर या लालसा है?
क्या मैं यह समझता हूँ कि कर्म का उद्देश्य स्वयं कर्म है?
क्या मेरा जीवन कर्मयोग की राह पर अग्रसर है?
निष्कर्ष
भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक के माध्यम से यह स्पष्ट करते हैं कि उनके लिए किसी कर्म की अधूरी प्राप्ति या कर्तव्य का अपूर्ण होना संभव नहीं। वे पूर्णतया कर्म के बंधनों से मुक्त हैं, फिर भी अपने धर्म के अनुसार कर्म करते हैं।
यह हमें कर्मयोग के सच्चे स्वरूप को समझने का अवसर देता है: कर्म करने का अभ्यास फल की आशक्ति से मुक्त होकर करना, कर्तव्य के पालन के लिए समर्पित रहना।
यह श्लोक हमें जीवन में निष्काम कर्म योग का पालन करने और कर्म को केवल एक साधन समझने के लिए प्रेरित करता है।