मूल श्लोक: 21
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥
शब्दार्थ
- यत् यत् — जो-जो, हर प्रकार का
- आचरति — करता है, करता रहता है
- श्रेष्ठः — श्रेष्ठ व्यक्ति, आदर्श, गुरु या नेता
- तत् — वही
- देवः — निश्चित रूप से
- इतरः जनः — अन्य लोग, समाज के सदस्य
- सः — वही
- यत् प्रमाणं — जो मात्रा, सीमा, नियम या स्तर
- कुरुते — करता है
- लोकः — लोग, समाज
- तत् अनु — उसी के अनुसार
- वर्तते — चलते हैं, अनुसरण करते हैं
महापुरुष जो भी कर्म करते हैं, सामान्य जन उनका पालन करते हैं, वे जो भी आदर्श स्थापित करते हैं, सारा संसार उनका अनुसरण करता है।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में श्रीकृष्ण यह समझा रहे हैं कि समाज के लोग अपने आदर्शों, नेताओं या श्रेष्ठ व्यक्तियों के आचरण को देखकर उनका अनुसरण करते हैं।
- एक व्यक्ति का आचरण दूसरों के लिए मार्गदर्शन बन जाता है।
- यदि श्रेष्ठ व्यक्ति धर्म, नीति और सदाचार का पालन करता है, तो लोग भी उसी रास्ते पर चलने लगते हैं।
- इसी कारण श्रेष्ठ व्यक्तियों का आचरण समाज के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होता है।
- यह श्लोक कर्म के सामाजिक प्रभाव को दर्शाता है कि नेतृत्व या आदर्श जीवनशैली कैसे समाज को दिशा देती है।
अतः एक व्यक्ति की अच्छी या बुरी आदतें पूरी सामाजिक संरचना पर प्रभाव डालती हैं।
भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण
दार्शनिक दृष्टिकोण
- मनुष्य सामाजिक प्राणी है, इसलिए उसकी क्रियाएँ दूसरों पर प्रभाव डालती हैं।
- श्रेष्ठतम व्यक्ति का आचरण नैतिक और आध्यात्मिक नेतृत्व प्रदान करता है।
- यह श्लोक नेतृत्व की नैतिक जिम्मेदारी को दर्शाता है कि श्रेष्ठ लोग अपने कर्मों से समाज के लिए आदर्श स्थापित करते हैं।
- कर्म केवल व्यक्तिगत क्रिया नहीं, बल्कि सामूहिक चेतना पर भी प्रभाव डालता है।
प्रतीकात्मक अर्थ
- श्रेष्ठः — गुरु, पितामह, राजा, शिक्षक, या कोई भी जो समाज में आदर्श माना जाता है।
- लोकः — समाज के अन्य सदस्य जो उस आदर्श को देखकर सीखते हैं।
- अनुवर्तन — व्यवहार, विचार और कर्म का अनुकरण।
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- हमें अपने कर्मों में सदा सावधानी बरतनी चाहिए क्योंकि हमारा व्यवहार दूसरों के लिए मार्गदर्शक बनता है।
- एक सच्चा नेता या श्रेष्ठ व्यक्ति अपने आचरण से समाज को सही दिशा देता है।
- व्यक्तिगत कर्म का व्यापक प्रभाव होता है, इसलिए निष्काम और धर्मपरायण कर्म करें।
- यह ज्ञान हमें जिम्मेदार बनाता है कि हम अपने कर्मों से समाज को सकारात्मक दिशा दें।
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मेरा आचरण दूसरों के लिए प्रेरणा का स्रोत है?
क्या मैं अपनी जिम्मेदारी समझते हुए सदैव श्रेष्ठ कर्म करता हूँ?
क्या मेरा व्यवहार समाज को सही दिशा में ले जा रहा है?
क्या मैं अपने कर्मों के सामाजिक प्रभाव के प्रति सचेत हूँ?
निष्कर्ष
श्रीकृष्ण इस श्लोक के माध्यम से यह संदेश देते हैं कि:
व्यक्ति चाहे जितना भी श्रेष्ठ क्यों न हो, उसके कर्मों का प्रभाव पूरे समाज पर पड़ता है।
इसीलिए श्रेष्ठ व्यक्ति को चाहिए कि वह सदैव धर्म, सत्य और न्याय के मार्ग पर चलकर दूसरों के लिए आदर्श प्रस्तुत करे।
समाज उसी की नकल करता है जो उसका नेतृत्व करता है।
इस दृष्टि से, प्रत्येक व्यक्ति विशेषकर जो समाज में नेतृत्व कर रहा हो, उसे अपने कर्मों के प्रति अधिक सजग और जिम्मेदार रहना चाहिए।
यही जीवन और कर्म का सामाजिक पहलू है।