मूल श्लोक: 32
ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्।
सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः॥
शब्दार्थ
- ये तु — परंतु जो
- एतत् — यह (ज्ञान, उपदेश)
- अभ्यसूयन्तः — दोष देखने वाले, ईर्ष्यायुक्त होकर निंदा करने वाले
- न अनुतिष्ठन्ति — पालन नहीं करते
- मे मतम् — मेरे मत (उपदेश) का
- सर्वज्ञानविमूढान् — समस्त ज्ञान से मोहित (अज्ञानी)
- तान् — उन्हें
- विद्धि — जानो
- नष्टान् — नष्ट हुए, पतित
- अचेतसः — विवेकहीन, चेतना से रहित
किन्तु जो मेरे उपदेशों में दोष ढूंढते हैं, वे ज्ञान से वंचित और विवेकहीन होते हैं, इन सिद्धान्तों की उपेक्षा करने से वे अपने विनाश का कारण बनते हैं।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में श्रीकृष्ण कर्मयोग के विरोधियों की स्थिति को स्पष्ट कर रहे हैं। जो लोग शास्त्रीय और दैवी उपदेशों का सम्मान नहीं करते, ईर्ष्या या अभिमान के कारण उन्हें तुच्छ समझते हैं, वे अपने विवेक को नष्ट कर चुके होते हैं।
यहाँ “मे मतम्” का तात्पर्य है — भगवद्गीता में दिया गया कर्मयोग का उपदेश। इसका अर्थ केवल युद्ध तक सीमित नहीं है, बल्कि सम्पूर्ण जीवन में कर्तव्यपालन, निष्काम भाव, समता और आत्मबोध के साथ कर्म करना।
“अभ्यसूयन्तः” — यानी जो जान-बूझकर गीता के इस दिव्य ज्ञान की आलोचना करते हैं, उन्हें श्रीकृष्ण चेतावनी देते हैं कि ऐसे लोग “सर्वज्ञानविमूढाः” हैं — सभी प्रकार के विवेक और ज्ञान से भ्रमित हैं।
वे “नष्टाः अचेतसः” हैं — अर्थात उनका जीवन उद्देश्य से विहीन, आत्मिक चेतना से शून्य है।
भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण
दार्शनिक दृष्टिकोण
यह श्लोक कर्मयोग और गीता के शास्त्रीय ज्ञान के प्रति श्रद्धा की अनिवार्यता को दर्शाता है।
श्रीकृष्ण के मत में:
- जो इस ज्ञान को तुच्छ समझते हैं, वे केवल एक मत को नहीं, बल्कि धर्म के सार्वभौमिक सत्य को ठुकरा रहे होते हैं।
- वे अपने अहंकार, अज्ञान, और दुष्प्रवृत्तियों के कारण स्वयं को पतन की ओर ले जाते हैं।
- उनका मन ईश्वर में स्थित नहीं, बल्कि विषयों और ममता में डूबा होता है, जिससे वे आत्मविकास से च्युत हो जाते हैं।
प्रतीकात्मक अर्थ
- मे मतम् — ईश्वर द्वारा निर्देशित धर्म और कर्म का मार्ग
- अभ्यसूयन्तः — तर्क से नहीं, अहंकार और ईर्ष्या से ग्रसित व्यक्ति
- विमूढाः — आत्मज्ञान से दूर, मोहग्रस्त
- नष्टाः — आध्यात्मिक पतन की स्थिति
- अचेतसः — जो आत्मिक चेतना को जागृत नहीं कर सके
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- ईश्वरीय ज्ञान की निंदा केवल बाहरी अवज्ञा नहीं, आत्म-विनाश की शुरुआत है।
- ज्ञान का विरोध विवेक का विरोध है।
- अहंकार व्यक्ति को ज्ञान नहीं लेने देता, और यह पतन का मुख्य कारण बनता है।
- गीता का उपदेश केवल धार्मिक नहीं, आत्मिक उत्थान का पथ है — इसका सम्मान ही आत्मगौरव है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मैं गीता जैसे शास्त्रों की शिक्षाओं को श्रद्धा से ग्रहण करता हूँ?
क्या मेरे भीतर गुप्त अभिमान या संशय ज्ञान को ग्रहण करने से रोक रहा है?
क्या मैं विवेक और आत्मबोध की ओर अग्रसर हूँ, या विषयों और तर्कों में उलझा हूँ?
क्या मैं किसी ज्ञान को केवल इसलिए नकारता हूँ क्योंकि वह मेरे अहंकार के अनुकूल नहीं?
निष्कर्ष
भगवद्गीता का यह श्लोक एक गहन चेतावनी है — कि जो व्यक्ति ईश्वर द्वारा प्रदत्त दिव्य ज्ञान का तिरस्कार करता है, वह अपने आध्यात्मिक पतन की ओर स्वयं ही अग्रसर होता है।
श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं कि:
- कर्मयोग का मार्ग तर्क नहीं, श्रद्धा और विवेक से ग्रहण किया जाना चाहिए।
- जो उसे नकारते हैं, वे केवल ज्ञानहीन नहीं, चेतनहीन हो जाते हैं।
- और अंततः जीवन का उद्देश्य — आत्मा की उन्नति — उनसे छिन जाता है।
इसलिए, गीता का संदेश केवल समझने योग्य नहीं, जीवन में उतारने योग्य है।