मूल श्लोक: 37
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्॥
शब्दार्थ
- काम एष — यह काम (इच्छा) है
- क्रोध एष — यह क्रोध है
- रजोगुणसमुद्भवः — जो रजोगुण से उत्पन्न होता है (रजोगुण — सक्रियता, तनाव, आसक्ति का गुण)
- महाशनः — बड़ा भक्षक, विनाशक
- महापाप्मा — महान पाप करने वाला
- विद्धि एतं — इसे जानो
- इह — यहाँ (इस संसार में)
- वैरिणम् — शत्रु, विरोधी
परमात्मा श्रीकृष्ण कहते हैं- काम वासना जो रजोगुण से उत्पन्न होती है और बाद में क्रोध का रूप धारण कर लेती है, इसे पाप के रूप में संसार का सर्वभक्षी शत्रु समझो।

विस्तृत भावार्थ
यहाँ भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि हमारे मन के दो सबसे विनाशकारी शत्रु हैं — काम (वासना, इच्छा) और क्रोध। ये दोनों रजोगुण से उत्पन्न होते हैं, जो स्वभाव में तनाव, आसक्ति, लालच और उत्तेजना लाता है।
काम और क्रोध मनुष्य को अधर्मी कर्मों में लिप्त कर, उसकी बुद्धि को मुँह मोड़ने वाले शत्रु हैं। ये दोनों ऐसे “महाशन” हैं जो व्यक्ति के अंदर से उसकी आध्यात्मिक उन्नति को खा जाते हैं और उसे पापों में डुबो देते हैं।
भगवान कहते हैं कि इन्हें अपने शत्रु के रूप में पहचानना चाहिए, क्योंकि ये व्यक्ति के जीवन में सबसे बड़े हानिकारक तत्व हैं जो अंततः उसका विनाश करते हैं।
भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण
दार्शनिक दृष्टिकोण
काम और क्रोध दो मानसिक अवस्थाएँ हैं जो मनुष्य को आत्म-विनाश की ओर ले जाती हैं। काम मन को आसक्त और वश में कर लेता है, जबकि क्रोध इस आसक्ति के पूर्ण न होने पर उत्पन्न होता है।
रजोगुण का स्वभाव होता है सक्रिय, चंचल और अस्थिर, जो इच्छाओं और आवेगों को जन्म देता है। इसलिए काम और क्रोध दोनों इसी गुण के प्रभाव से जन्म लेते हैं।
यह श्लोक हमें चेतावनी देता है कि इन दोनों को हमारे भीतर का प्रमुख शत्रु मानना चाहिए और इन्हें नियंत्रित करना ही आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग है।
प्रतीकात्मक अर्थ
- काम — सांसारिक इच्छाएं, वासना, लालसा
- क्रोध — आवेग, हिंसात्मक प्रतिक्रिया
- रजोगुण — सक्रियता, तनाव, परिवर्तनशीलता का गुण
- महाशन — जो सबकुछ भक्षण कर समाप्त कर दे
- महापाप्मा — जो बड़े पापों का कारण बने
- वैरिणम् — हमारा सबसे बड़ा दुश्मन, जो आत्मा की उन्नति में बाधा डालता है
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- काम और क्रोध मनुष्य के सबसे बड़े शत्रु हैं।
- इन्हें समझना और इनसे सावधान रहना आध्यात्मिक जागरूकता का संकेत है।
- रजोगुण के प्रभाव को कम करना और सत्त्वगुण की ओर बढ़ना आवश्यक है।
- मन के वासनात्मक और क्रोधात्मक भावनाओं को संयमित करना ही मोक्ष का मार्ग है।
- यदि काम और क्रोध पर विजय प्राप्त हो जाए तो मनुष्य मुक्ति और शांति की ओर अग्रसर होता है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मैं अपनी कामनाओं और क्रोध को अपने ऊपर हावी होने देता हूँ?
क्या मैं समझता हूँ कि ये मेरे लिए मेरे सबसे बड़े शत्रु हैं?
मैं इन्हें नियंत्रित करने के लिए क्या उपाय करता हूँ?
क्या मेरा जीवन सत्त्वगुण की ओर अग्रसर है या रजोगुण के प्रभाव में है?
क्या मैं इन दोषों से मुक्त होकर शांति और आध्यात्मिक प्रगति की ओर बढ़ना चाहता हूँ?
निष्कर्ष
भगवद्गीता का यह श्लोक हमें गहरा आत्मनिरीक्षण करने और अपने मन के काम और क्रोध जैसे शत्रुओं को पहचानने का निर्देश देता है। ये दोनों रजोगुण से उत्पन्न होने वाले विनाशकारी मानसिक भाव हैं जो व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास में सबसे बड़ी बाधा हैं।
यदि हम इन्हें अपने शत्रु के रूप में स्वीकार कर नियंत्रण कर लें, तो हमारा मन शांत और स्थिर होगा, जिससे हम जीवन के उच्चतम उद्देश्य — मोक्ष — की प्राप्ति कर सकेंगे।