मूल श्लोक: 36
अर्जुन उवाच।
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः ।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ॥36॥
शब्दार्थ
- अर्जुन उवाच — अर्जुन ने कहा
- अथ केन प्रयुक्तः — तो किसके द्वारा प्रेरित होकर
- अयं पापं चरति पूरुषः — यह मनुष्य पापयुक्त कर्म करता है
- अनिच्छन् अपि — बिना इच्छा के भी
- वार्ष्णेय — हे वृष्ण पुत्र, अर्थात श्रीकृष्ण
- बलाद इव नियोजितः — बल के समान जबरदस्ती प्रवृत्त हुआ
अर्जुन ने कहा! हे वृष्णिवंशी, श्रीकृष्ण! इच्छा न होते हुए भी मनुष्य पापजन्य कर्मों की ओर क्यों प्रवृत्त होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि उसे बलपूर्वक पाप कर्मों में लगाया जाता है।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में अर्जुन भगवान कृष्ण से प्रश्न करते हैं कि कोई मनुष्य जब वह स्वयं ऐसा कर्म करने की इच्छा नहीं रखता, तब भी पापयुक्त कर्म कैसे करता है?
यानी, यदि मनुष्य के अंदर इच्छा नहीं है, तब फिर वह किन कारणों से पापमय कर्म करता है, जो उसके लिए हानिकारक और पापकारक होता है? क्या उसे कोई ऐसी शक्ति या बल जबरदस्ती अपने कर्म करने के लिए प्रेरित करता है?
यह प्रश्न मनुष्य के कर्म और इच्छा के बीच गहरे द्वन्द्व को प्रकट करता है। अर्जुन यहाँ यह जानना चाहता है कि मनुष्य अपने नियंत्रण से बाहर कैसे हो जाता है और गलत कर्म करता है?
भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण
दार्शनिक दृष्टिकोण
यह श्लोक मनुष्य के अंतःस्फूर्त कर्म और बुरी प्रवृत्तियों के कारण कर्मों के बीच एक प्रश्न खड़ा करता है। मनुष्य क्यों पापपूर्ण कर्म करता है, जब उसका मन ऐसा करने के लिए स्वेच्छा नहीं रखता?
यहाँ एक दोराहा दिखता है — व्यक्ति का मन अंदर से विरोध करता है, पर बाहरी या भीतरी बल उसे गलत कर्मों की ओर ले जाते हैं। यह बल वासना, अज्ञानता, संसर्ग या पूर्व कर्मों के परिणामस्वरूप उत्पन्न होता है।
यह प्रश्न कर्मयोग और आत्मज्ञान की दिशा में महत्वपूर्ण है क्योंकि इसका उत्तर हमें कर्म, इच्छा, और नियन्त्रण की गहराई समझाता है।
प्रतीकात्मक अर्थ
- पापं चरति पूरुषः — मनुष्य के द्वारा किया गया पाप
- अनिच्छन्नपि — मन की अनिच्छा, भीतरी संघर्ष
- बलादिव नियोजितः — किसी प्रकार के बाहरी या भीतरी जबरदस्ती प्रभाव द्वारा प्रेरित होना
- वार्ष्णेय — श्रीकृष्ण के प्रति संबोधन, गुरु और मार्गदर्शक
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- मनुष्य के कर्मों में उसकी इच्छा से परे भी शक्तियाँ काम कर सकती हैं।
- अनजाने या अनिच्छित कर्म भी उसके जीवन में बाधा बन सकते हैं।
- आत्म-जागरूकता से इन बलों को समझना और नियंत्रण में लेना आवश्यक है।
- गुरु या आध्यात्मिक मार्गदर्शन से ही मनुष्य अपने भीतर के अज्ञान और बंधनों से मुक्त हो सकता है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मैं कभी ऐसा अनुभव करता हूँ कि मैं ऐसा कर्म कर रहा हूँ जो मेरी इच्छा के विपरीत है?
कौन-से कारण या शक्तियाँ मुझे मेरे निर्णयों के विरुद्ध प्रेरित कर सकती हैं?
क्या मैं अपने कर्मों के पीछे छिपे कारणों को समझने का प्रयास करता हूँ?
क्या मुझे अपने भीतर के आंतरिक संघर्ष और बाहरी प्रभावों का ज्ञान है?
मैं अपने कर्मों को नियंत्रित करने के लिए क्या कदम उठा रहा हूँ?
निष्कर्ष
अर्जुन का यह प्रश्न कर्म, इच्छा और बंधनों के बीच गहन संबंध को उद्घाटित करता है।
यह बताता है कि मनुष्य अक्सर अनिच्छा के बावजूद कर्मों के जाल में फँस जाता है, जैसे कोई बाहरी बल उसे जबरदस्ती सक्रिय करता हो।
इस स्थिति से उबरने के लिए आत्म-साक्षात्कार, योग, और गुरु की प्रेरणा आवश्यक है ताकि मनुष्य अपने कर्मों का स्वामी बन सके और अनजाने पाप से मुक्त हो।