Bhagavad Gita: Hindi, Chapter 3, Sloke 38

मूल श्लोक: 38

धूमेनावियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च ।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम् ॥38॥

शब्दार्थ

  • धूमेन न अवियते वह्नि: अग्नि धुएँ से घिरा होने पर भी बुझता नहीं है।
  • यथा अर्दशो मलेन: जैसे धुआँ मल के कारण अग्नि को ढकता है पर उसे बुझा नहीं सकता।
  • यथा उल्ल्बेन आवृतो गर्भः: जैसे गर्भ माँ के उदर से आवृत्त (ढका) है।
  • तथा तेन एतम आवृतम्: उसी प्रकार, तुम्हारा शरीर इन्द्रियों से घिरा हुआ है।

जैसे अग्नि धुएँ से ढकी रहती है, दर्पण धूल से आवृत रहता है तथा भ्रूण गर्भाशय से अप्रकट रहता है, उसी प्रकार से कामनाओं के कारण मनुष्य के ज्ञान पर आवरण पड़ा रहता है।

विस्तृत भावार्थ

इस श्लोक में भगवान कृष्ण जीवन और आत्मा के गूढ़ स्वरूप की ओर संकेत करते हैं। वे कहते हैं कि तुम्हारा शरीर इन्द्रियेंद्रियार्थों के आवरण से घिरा हुआ है, जैसे अग्नि धुएँ से और गर्भ माँ के पेट से घिरा होता है।

धुएँ के कारण अग्नि का अस्तित्व छिप जाता है, पर अग्नि बुझती नहीं। इसी प्रकार गर्भ शरीर को आवृत करता है, लेकिन आत्मा शरीर से छिपी नहीं होती।

यहाँ शरीर, इन्द्रियाँ और भौतिक आवरण बाहरी आवरण के रूप में हैं जो आत्मा के वास्तविक स्वरूप को छिपाते हैं, पर आत्मा स्वयं उससे प्रभावित नहीं होती। यह आत्मा अटल, शुद्ध और अविनाशी है।

भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण

दार्शनिक दृष्टिकोण

यह श्लोक आत्मा और शरीर के भेद को स्पष्ट करता है। शरीर इन्द्रिय और सांसारिक वस्तुओं से आवृत है, पर आत्मा उसकी सीमाओं से परे है।

आत्मा का स्वरूप अग्नि के समान है, जो धुएँ (भौतिक आवरण) से घिरी होती है पर बुझती नहीं। यह ज्ञान हमें असली ‘स्वयं’ का अनुभव कराता है और माया के आवरण को पहचानने की क्षमता देता है।

प्रतीकात्मक अर्थ

  • अग्नि — आत्मा, चेतना
  • धुआँ — इन्द्रिय, सांसारिक वस्तुएं, माया
  • गर्भ — शरीर, जो आत्मा को आवृत करता है
  • मल — सांसारिक बाधाएँ, अज्ञानता

आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा

  • आत्मा अविनाशी है, शरीर और इन्द्रियाँ अस्थायी आवरण मात्र हैं।
  • बाहरी आवरण हमें भ्रमित कर सकते हैं, पर वे आत्मा को नहीं छूते।
  • आत्मज्ञान के माध्यम से हम अपने वास्तविक स्वरूप को समझ सकते हैं।
  • हमें शरीर और इन्द्रिय बंधनों के परे जाकर आत्मा की ओर ध्यान लगाना चाहिए।

आत्मचिंतन के प्रश्न

क्या मैं अपने वास्तविक स्वरूप (आत्मा) को समझता हूँ या केवल शरीर को ही स्वयं समझता हूँ?
क्या मुझे अपने शरीर और इन्द्रियों के आवरण के कारण अपनी चेतना छिपी हुई लगती है?
क्या मैं सांसारिक वस्तुओं और इन्द्रिय सुखों के कारण अपने वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ हूँ?
क्या मैं आत्मा की शुद्ध और अविनाशी प्रकृति को अनुभव करने का प्रयास करता हूँ?
मैं अपने जीवन में माया और भौतिक आवरणों से ऊपर उठने के लिए क्या करता हूँ?

निष्कर्ष

यह श्लोक हमें आत्मा और शरीर के बीच के अंतर को समझने की प्रेरणा देता है।

यह स्पष्ट करता है कि जैसे अग्नि धुएँ से और गर्भ माँ के उदर से आवृत होती है पर उनमें नष्ट नहीं होती, उसी प्रकार आत्मा शरीर और इन्द्रिय आवरणों से घिरी है, पर अविनाशी और शुद्ध बनी रहती है।

हमें इस गहन सत्य को समझकर माया के बंधनों से मुक्त होकर आत्मा के स्वरूप को अनुभव करना चाहिए, जो हमारी मुक्ति और सच्ची शांति का मार्ग है।

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