मूल श्लोक: 42
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ॥42॥
शब्दार्थ
- इन्द्रियाणि — इन्द्रियाँ (जैसे: कान, नाक, आँख आदि)
- पराणि — परम, श्रेष्ठ, सर्वोच्च
- आहुः — कहते हैं
- इन्द्रियेभ्यः — इन्द्रियों से
- परं मनः — मन इन्द्रियों से भी श्रेष्ठ है
- मनसः — मन का
- तु — किन्तु
- पराः — सर्वोच्च, उच्चतर
- बुद्धिः — बुद्धि, विवेक
- यः — जो
- बुद्धेः — बुद्धि से
- परः तः सः — उससे भी श्रेष्ठ वही है
इन्द्रियाँ स्थूल शरीर से श्रेष्ठ हैं और इन्द्रियों से उत्तम मन, मन से श्रेष्ठ बुद्धि और आत्मा बुद्धि से भी परे है।

विस्तृत भावार्थ
श्रीकृष्ण इस श्लोक में चेतना के स्तरों की एक संरचना बताते हैं। सबसे निचले स्तर पर हैं इन्द्रियाँ, जो बाहर की दुनिया से जानकारी प्राप्त करती हैं। इन्द्रियाँ केवल बाहरी संवेदनाएँ संकलित करती हैं, वे असीमित नहीं हैं।
इन्द्रियों से ऊपर है मन, जो इन्द्रियों से प्राप्त जानकारी को ग्रहण करता है, उनका संकलन करता है और इच्छाओं, भावनाओं का केंद्र होता है।
मन से ऊपर है बुद्धि, जो विवेक, निर्णय और विवेचना की क्षमता रखती है। बुद्धि मन को दिशा देती है और सही-गलत का ज्ञान प्रदान करती है।
परंतु बुद्धि से भी ऊपर है वह चेतना या आत्मज्ञान, जो बुद्धि के सीमित दायरे से परे है। यह उच्चतम स्तर है, जो निराकार, शुद्ध और सर्वज्ञ है।
इस प्रकार, श्लोक हमें चेतावनी देता है कि हमें केवल इन्द्रिय और मन के स्तर पर न रुकना चाहिए, बल्कि बुद्धि की मदद से उस परम चेतना को समझना चाहिए जो सभी सीमाओं से परे है।
भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण
दार्शनिक दृष्टिकोण
यह श्लोक मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक क्रम को दर्शाता है: इन्द्रिय → मन → बुद्धि → परम चेतना।
यह ज्ञान हमें आत्म-अन्वेषण की दिशा में बढ़ने को प्रेरित करता है। केवल इन्द्रिय और मन की गतिविधियों में उलझे रहना अधूरा है; बुद्धि द्वारा जांच और विचार के बाद भी हमें उससे ऊपर उठकर उस परम चेतना का अनुभव करना है।
आत्मा वही है जो बुद्धि से भी परे है — अविनाशी, शाश्वत, और परमानंद स्वरूप।
प्रतीकात्मक अर्थ
- इन्द्रियाणि — बाहरी संवेदनों के माध्यम
- मनः — इच्छाओं, भावनाओं का केन्द्र
- बुद्धिः — विवेक और ज्ञान की शक्ति
- परः तः सः — परम चेतना या आत्मा, जो सभी से श्रेष्ठ है
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- मन और इन्द्रिय की प्रतिक्रियाओं में फंसना नहीं चाहिए।
- बुद्धि से सोच-समझकर कर्म करना चाहिए।
- बुद्धि से भी ऊपर उठकर उस परम चेतना को आत्मसात करना लक्ष्य होना चाहिए।
- यह क्रम हमें आंतरिक विकास और मोक्ष की ओर ले जाता है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मैं अपने इन्द्रिय और मन के स्तर से ऊपर उठकर बुद्धि का सही प्रयोग करता हूँ?
क्या मैं बुद्धि से भी ऊपर उस परम चेतना को समझने का प्रयास करता हूँ?
क्या मैं केवल बाहरी इच्छाओं और भावनाओं से प्रेरित हूँ या सच्चे आत्मज्ञान की खोज में हूँ?
क्या मैं अपने मन, बुद्धि और इन्द्रिय के नियंत्रण में हूँ?
निष्कर्ष
यह श्लोक हमें चेतावनी और मार्गदर्शन दोनों देता है कि चेतना के विभिन्न स्तर हैं और हमें केवल इन्द्रिय और मन तक सीमित नहीं रहना चाहिए।
मन और बुद्धि का सही उपयोग कर हम उस परम चेतना तक पहुँच सकते हैं जो असीम, शुद्ध और शाश्वत है।
श्रीकृष्ण का संदेश है कि जीवन में सच्ची समझ और मुक्ति तभी संभव है जब हम अपने मन, बुद्धि और इन्द्रिय के दायरे से बाहर निकलकर उस उच्चतम चेतना का अनुभव करें।