मूल श्लोक: 5
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः॥
शब्दार्थ
- न हि — निश्चित ही नहीं
- कश्चित् — कोई भी व्यक्ति
- क्षणम् अपि — एक क्षण मात्र भी
- जातु — कभी भी
- तिष्ठति — टिक सकता है
- अकर्मकृत् — बिना कर्म किए हुए
- कार्यते — कराया जाता है / प्रेरित होता है
- हि — क्योंकि / वास्तव में
- अवशः — असहाय रूप से / विवश होकर
- कर्म — कार्य / क्रिया
- सर्वः — सभी
- प्रकृतिजैः गुणैः — प्रकृति से उत्पन्न त्रिगुणों (सत्व, रज, तम) द्वारा
कोई भी मनुष्य एक क्षण के लिए अकर्मा नहीं रह सकता। वास्तव में सभी प्राणी प्रकृति द्वारा उत्पन्न तीन गुणों के अनुसार कर्म करने के लिए विवश होते हैं।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण कर्म के अनिवार्य स्वरूप की व्याख्या करते हैं। वे कहते हैं कि यह संभव ही नहीं है कि कोई मनुष्य एक क्षण भी निष्क्रिय रह सके। जीवन में हर क्षण कोई न कोई क्रिया हो रही होती है — चाहे वह शारीरिक हो, मानसिक हो या वाचिक (वाणी से) हो। यह कर्म हमारे भीतर मौजूद प्रकृति के गुणों — सत्त्व, रजस और तमस — के प्रभाव से प्रेरित होता है।
इसलिए, केवल बाह्य रूप से कर्म का त्याग करना (जैसे कि सन्यास ले लेना) समाधान नहीं है। यदि भीतर में इच्छाएँ, विचार और संकल्प चल रहे हैं, तो वह भी एक प्रकार का कर्म है।
भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण
दार्शनिक दृष्टिकोण
यह श्लोक स्पष्ट करता है कि कर्म का त्याग करना असंभव है। आत्मा जब तक शरीर में है, कर्म अपरिहार्य है। कर्म न करने का प्रयास भी एक प्रकार का कर्म ही है।
भगवद्गीता का कर्मयोग इसी विचार पर आधारित है — निष्काम भाव से कर्म करते रहना, लेकिन फल की आसक्ति का त्याग करना। इसलिए श्रीकृष्ण यह कहते हैं कि सन्यास (कर्म त्याग) के बजाय कर्म करते हुए आत्म-साक्षात्कार की दिशा में बढ़ना ही श्रेष्ठ है।
प्रतीकात्मक अर्थ
- क्षणमपि अकर्मकृत् — मनुष्य कभी भी निष्क्रिय नहीं रह सकता, उसका अस्तित्व ही क्रिया में है
- प्रकृतिजैर्गुणैः — हमारी संपूर्ण जीवनधारा प्रकृति के तीन गुणों (सत्व, रजस, तमस) द्वारा नियंत्रित होती है
- कार्यते ह्यवशः — यदि आत्मा सजग न हो तो व्यक्ति प्रकृति के गुणों का दास बनकर कर्म करता है, विवेकशील नहीं
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- कर्म का त्याग करना नहीं, बल्कि उसका शुद्धिकरण करना चाहिए।
- क्रिया रहित होना संभव नहीं, लेकिन फल की आसक्ति का त्याग संभव है।
- हमारे कर्म स्वभाव से उत्पन्न होते हैं, लेकिन चेतना द्वारा उन्हें नियंत्रित किया जा सकता है।
- बाहरी रूप से सन्यासी बन जाना पर्याप्त नहीं, आंतरिक रूप से समत्व और निर्लेपता प्राप्त करनी होती है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मैं सोचता हूँ कि मैं निष्क्रिय रह सकता हूँ या कर्म से मुक्त हो सकता हूँ?
क्या मेरे कर्म मेरे विवेक से प्रेरित हैं या केवल प्रकृति के गुणों से?
क्या मैं कर्म करते हुए जागरूक रहता हूँ कि यह किस प्रकार का कर्म है — सत्वप्रधान, रजसप्रधान या तमसप्रधान?
क्या मैं कर्म से भाग रहा हूँ या उसमें समत्व ला रहा हूँ?
क्या मेरे भीतर कर्म करने की भावना है या केवल कर्म से छुटकारा पाने की?
निष्कर्ष
भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में जीवन का गूढ़ सत्य बताते हैं — कर्म से भागा नहीं जा सकता। संन्यास लेना या चुप बैठना भी भीतर में एक मानसिक क्रिया है।
इसलिए, वास्तविक साधना यह नहीं कि कर्म न करें, बल्कि यह है कि —
- कर्म करें पर उसमें आसक्ति न हो
- कर्म करें पर उसमें अहंकार न हो
- कर्म करें पर उसका फल ईश्वर को समर्पित करें
यही कर्मयोग है — यही गीता का मार्ग है।
मनुष्य तब तक प्रकृति के गुणों द्वारा विवश होकर कर्म करता रहेगा जब तक वह आत्मा की सच्ची स्थिति में स्थित नहीं हो जाता। अतः जागरूक होकर, समता के साथ कर्म करना ही मुक्ति का मार्ग है।
“कर्म से पलायन नहीं, कर्म में प्रभु को पाना ही वास्तविक साधना है।”