मूल श्लोक: 6
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते॥
शब्दार्थ
- कर्मेन्द्रियाणि — कर्म करने वाले इन्द्रिय (इन्द्रिय-बल)
- संयम्य — संयम करते हुए, नियंत्रित करके
- यः — जो
- आस्ते — रहता है
- मनसा स्मरन् — मन से याद करता है, चिंतन करता है
- इन्द्रियान् — इन्द्रियों को
- विमूढात्मा — मूरख, भ्रमित आत्मा
- मिथ्याचारः — गलत आचरण करने वाला
- सः उच्यते — वह कहा जाता है
जो अपनी कर्मेन्द्रियों को तो नियंत्रित करते हैं लेकिन मन से उनके विषयों का चिन्तन करते हैं, वे निःसन्देह स्वयं को धोखा देते हैं और पाखण्डी कहलाते हैं।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में श्रीकृष्ण कहते हैं कि कर्म करने वाले इन्द्रियों को मन द्वारा संयमित करना अत्यंत आवश्यक है।
यदि कोई व्यक्ति अपने इन्द्रियों पर नियंत्रण न रखे, अर्थात इन्द्रियों के प्रभाव में आकर भ्रमित हो, तो वह गलत कर्म करता है, जिससे उसका आचरण मिथ्या यानी असत्य और पथभ्रष्ट हो जाता है।
मन ही इन्द्रियों का स्वामी है, यदि मन शांत और संयमित हो तो इन्द्रिय भी नियंत्रित रहेंगे और कर्म शुद्ध और सार्थक होंगे। इस प्रकार संयमित मन वाले व्यक्ति को ही श्रेष्ठ माना गया है।
भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण
दार्शनिक दृष्टिकोण
- मन और इन्द्रिय मिलकर कर्म करते हैं।
- मन जब इन्द्रियों को नियंत्रित करता है, तभी कर्म सही दिशा में जाता है।
- मन की स्मृति और ध्यान (मनसा स्मरन्) से इन्द्रिय संयमित होते हैं।
- इन्द्रियों के अधीन मन भ्रमित हो जाए, तो वह कर्म मिथ्या हो जाता है।
यह श्लोक आत्मसंयम और मनोविनियमन की महत्ता को स्पष्ट करता है।
प्रतीकात्मक अर्थ
- कर्मेन्द्रियाणि — इन्द्रिय कर्म के माध्यम
- संयम्य मनसा — मन द्वारा नियंत्रण
- विमूढात्मा — जिसने बुद्धि खो दी हो, भ्रमित आत्मा
- मिथ्याचारः — जो असत्य कर्म करता है
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- इन्द्रिय संयमित होना आवश्यक है।
- मन को इन्द्रियों का स्वामी बनाना चाहिए।
- मन विचलित हो तो कर्म अशुद्ध होते हैं।
- शुद्ध कर्म के लिए मन की एकाग्रता और संयम आवश्यक है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मैं अपने इन्द्रियों को मन के नियंत्रण में रख पाता हूँ?
क्या मेरा मन स्थिर और संयमित है या भ्रमित और विचलित?
क्या मेरे कर्म मन की शुद्धता के अनुसार होते हैं?
क्या मैं गलत आचरण से बचता हूँ?
क्या मैं मन और इन्द्रिय के बीच संतुलन बनाए रखता हूँ?
निष्कर्ष
श्रीकृष्ण इस श्लोक में बताते हैं कि मन का संयम इन्द्रिय नियंत्रण का आधार है। केवल इन्द्रिय संयम करना ही पर्याप्त नहीं, बल्कि मन का स्थिर और स्पष्ट होना आवश्यक है।
मन द्वारा इन्द्रिय संयम से कर्म शुद्ध होते हैं, जिससे व्यक्ति आध्यात्मिक मार्ग पर अग्रसर होता है। भ्रमित मन इन्द्रिय संयम को खो देता है और मिथ्या आचरण जन्म लेता है। इसलिए मन का ध्यान रखना और उसे नियंत्रित रखना योग और कर्म के लिए अनिवार्य है।