मूल श्लोक: 7
यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते॥
शब्दार्थ
- यः तु — लेकिन जो व्यक्ति
- इन्द्रियाणि — इन्द्रियाँ (ज्ञानेंद्रियाँ जैसे – आंख, कान, आदि)
- मनसा — मन द्वारा
- नियम्य — वश में करके / संयमित करके
- आरभते — आरंभ करता है / करता है
- अर्जुन — हे अर्जुन!
- कर्मेन्द्रियैः — कर्मेन्द्रियों (हाथ, पाँव आदि) से
- कर्मयोगम् — निष्काम कर्म का अभ्यास / कर्म का योग
- असक्तः — आसक्ति रहित होकर
- सः — वह व्यक्ति
- विशिष्यते — श्रेष्ठ होता है / विशेष होता है
हे अर्जुन! लेकिन वे कर्मयोगी जो मन से अपनी ज्ञानेन्द्रियों को नियंत्रित करते हैं और कर्मेन्द्रियों से बिना किसी आसक्ति के कर्म में संलग्न रहते हैं, वे वास्तव में श्रेष्ठ हैं।

विस्तृत भावार्थ
भगवान श्रीकृष्ण यहाँ बताते हैं कि कर्म का वास्तविक साधक कौन होता है। वह व्यक्ति जो केवल बाहरी दिखावे या कर्मत्याग की बात नहीं करता, बल्कि अपने मन द्वारा इन्द्रियों को संयम में रखता है और आसक्ति रहित होकर कर्म करता है, वही सच्चा योगी है।
यह श्लोक पिछले श्लोक (3.6) का उत्तर और परिशुद्धि भी है। उसमें श्रीकृष्ण ने उन लोगों की आलोचना की जो बाहरी रूप से तो कर्म का त्याग कर देते हैं, पर भीतर से मन में इच्छाएँ बनी रहती हैं। इस श्लोक में वे उस व्यवहारिक साधक की महिमा बताते हैं जो इन्द्रियों को वश में रखकर मन और कर्मेन्द्रियों से संतुलित जीवन जीता है।
भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण
दार्शनिक दृष्टिकोण
यह श्लोक स्पष्ट करता है कि योग केवल त्याग या तपस्या नहीं है, बल्कि एक जागरूकता और संतुलन का जीवन है। केवल इन्द्रियों का त्याग नहीं, बल्कि मन का वश में होना और साथ ही कर्म करते रहना — यह योग का सार है।
इन्द्रियों का संयम, मन की शुद्धता, और निष्काम भाव से कर्म — यह त्रिवेणी जब मिलती है, तब व्यक्ति “विशिष्यते” अर्थात श्रेष्ठ कहलाता है।
भगवद्गीता का यह भाग “कर्मयोग” की व्याख्या में अत्यंत केंद्रीय है। यहाँ श्रीकृष्ण यह सिखाते हैं कि कर्म से भागने वाला नहीं, बल्कि कर्म में रमा हुआ, परन्तु आसक्तिविहीन व्यक्ति ही सच्चा साधक होता है।
प्रतीकात्मक अर्थ
- इन्द्रियाणि — विषयों की ओर आकर्षण करने वाली शक्तियाँ
- मनसा नियम्य — मन की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण है — वह नियंत्रण का केन्द्र है
- कर्मेन्द्रियैः — जीवन की कार्यात्मक गतिविधियाँ
- कर्मयोगम् — साधना का ऐसा मार्ग जहाँ कर्म हो लेकिन फल की अपेक्षा न हो
- असक्तः — निष्कामता, निर्लिप्तता, तटस्थता
- विशिष्यते — सच्चे योगी की पहचान
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- केवल कर्मत्याग पर्याप्त नहीं, मन और इन्द्रियों का संयम आवश्यक है।
- निष्काम कर्म ही योग है।
- आसक्ति मन को बाँधती है, जबकि समत्व आत्मा को मुक्त करता है।
- जीवन में पूर्ण त्याग से अधिक मूल्य है — संतुलन में कर्म करते हुए आत्मसंयम रखना।
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मैं अपने इन्द्रियों और मन को संयमित कर पाया हूँ?
क्या मैं अपने कर्मों को फल की आकांक्षा के बिना कर रहा हूँ?
क्या मेरा जीवन कर्म और योग का संतुलित समन्वय है?
क्या मैं बाहरी दिखावे से मुक्त होकर आत्मिक रूप से साधना कर रहा हूँ?
क्या मैं “विशिष्यते” कहलाने योग्य साधक हूँ?
निष्कर्ष
भगवद्गीता का यह श्लोक स्पष्ट करता है कि कर्म से भागना योग नहीं है, बल्कि कर्म में संलग्न रहकर इन्द्रियों को वश में रखना और मन को शांत रखना, यही योग है।
श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि निष्क्रिय होकर केवल संन्यासी बनने की अपेक्षा, यदि कोई व्यक्ति अपनी इन्द्रियों को वश में रखे और निष्काम भाव से कर्म करे — तो वह श्रेष्ठ है।
अतः कर्म का मार्ग त्याग का नहीं, तप का है — जहां बाहरी कर्म और आंतरिक समत्व का मेल होता है।
“सच्चा योगी वह नहीं जो भागे कर्म से,
सच्चा योगी वह जो रहे कर्म में — पर मुक्त होकर, संयम से।”