मूल श्लोक: 1
श्रीभगवानुवाच
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ॥१॥
शब्दार्थ
- श्रीभगवानुवाच — भगवान श्रीकृष्ण ने कहा
- इमम् — इस (योग को)
- विवस्वते — सूर्य देव (विवस्वान) को
- योगम् — योग, आत्मबोध एवं निष्काम कर्म का मार्ग
- प्रोक्तवान् — कहा, उपदेश दिया
- अहम् — मैंने
- अव्ययम् — अविनाशी, शाश्वत
- विवस्वान् — सूर्य देव
- मनवे — मनु को (मानव जाति के आदिपुरुष)
- प्राह — कहा, बताया
- मनुः — मनु ने
- इक्ष्वाकवे — इक्ष्वाकु को (सूर्यवंशी राजा)
- अब्रवीत् — कहा, उपदेश दिया
परम भगवान श्रीकृष्ण ने कहा-मैने इस शाश्वत ज्ञानयोग का उपदेश सूर्यदेव, विवस्वान् को दिया और विवस्वान् ने मनु और फिर इसके बाद मनु ने इसका उपदेश इक्ष्वाकु को दिया।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण कर्मयोग की दिव्यता और प्राचीनता को स्पष्ट करते हैं। वे अर्जुन को बताते हैं कि यह ज्ञान कोई नवीन बात नहीं है, बल्कि यह शाश्वत सत्य है जिसे उन्होंने स्वयं ब्रह्मांड के प्रारंभ में सूर्य देव (विवस्वान) को बताया था।
विवस्वान से यह ज्ञान मनु तक पहुँचा, जिन्होंने मानव जाति की नींव रखी। फिर मनु ने इसे अपने पुत्र इक्ष्वाकु को दिया, जिससे सूर्य वंश प्रारंभ हुआ। इस प्रकार यह ज्ञान राजाओं और महापुरुषों के माध्यम से पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ा।
श्रीकृष्ण इस बात पर बल देते हैं कि योग का यह मार्ग बहुत प्राचीन, शुद्ध और सार्वकालिक है। अर्जुन को यह बताना इसीलिए आवश्यक है ताकि वह इसे कोई साधारण उपदेश न समझे, बल्कि यह जाने कि वह एक सनातन परंपरा का हिस्सा बनने जा रहा है।
भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण
दार्शनिक दृष्टिकोण
यह श्लोक बताता है कि योग का ज्ञान (विशेष रूप से कर्मयोग) शाश्वत है — यह समय और काल से परे है। यह केवल धर्म का नियम नहीं बल्कि ब्रह्मज्ञान है, जो आत्मा की मुक्ति का मार्ग है। योग का यह ज्ञान केवल साधुओं के लिए नहीं था, बल्कि राजाओं को भी सिखाया गया था क्योंकि वे समाज का संचालन करते थे।
प्रतीकात्मक अर्थ
- विवस्वान (सूर्य) — चेतना और ज्ञान का प्रतीक
- मनु — मानवता के मूल पुरुष, आत्मा की जागरूकता का आरंभ
- इक्ष्वाकु — धर्म और मर्यादा की स्थापना करने वाला राजवंश
- योगम् अव्ययम् — ऐसा ज्ञान जो नष्ट नहीं होता, आत्मा को जोड़ने वाला मार्ग
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- धर्म और योग का मार्ग अत्यंत प्राचीन और दिव्य है।
- इस ज्ञान को जीवन में अपनाने से व्यक्ति समाज और आत्मा दोनों के लिए हितकारी बनता है।
- यह श्लोक दर्शाता है कि योग किसी विशेष वर्ग के लिए नहीं बल्कि राजा से लेकर सामान्य मानव तक सभी के लिए है।
- यह ज्ञान ईश्वर से आरंभ होकर धीरे-धीरे संपूर्ण मानवता तक पहुँचता है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मैं अपने जीवन में प्राचीन दिव्य ज्ञान को महत्व देता हूँ?
क्या मैं इस योग परंपरा का हिस्सा बनने योग्य बन रहा हूँ?
क्या मेरे कर्म योग के सिद्धांतों पर आधारित हैं?
क्या मैं इस ज्ञान को केवल सुन रहा हूँ या जीवन में उतारने का प्रयास कर रहा हूँ?
निष्कर्ष
भगवान श्रीकृष्ण द्वारा दिया गया यह श्लोक हमें योग के मूल को समझने का अवसर देता है। यह ज्ञान कोई नया आविष्कार नहीं है, बल्कि यह शाश्वत है — जो सृष्टि की उत्पत्ति से लेकर आज तक चला आ रहा है।
श्रीकृष्ण अर्जुन को यह बताकर प्रेरित करते हैं कि वह भी उस दिव्य परंपरा का अंग बनने जा रहा है, जो ज्ञान, धर्म और मोक्ष की ओर ले जाती है। इस श्लोक से हमें यह बोध होता है कि योग केवल अभ्यास नहीं बल्कि एक गहन परंपरा और आत्मिक अनुशासन है जिसे जानकर ही जीवन सार्थक होता है।