मूल श्लोक: 2
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप॥
शब्दार्थ
- एवम् — इस प्रकार
- परम्परा-प्राप्तम् — परंपरा द्वारा प्राप्त
- इमम् — इस (योग को)
- राजर्षयः — राजर्षियों (राजा और ऋषि गुणों से युक्त) ने
- विदुः — जाना, समझा
- सः — वह (योग)
- कालेन — समय के कारण
- इह — इस लोक में
- महत् — महान
- योगः — यह योग
- नष्टः — लुप्त हो गया, खो गया
- परन्तप — हे शत्रुओं को संतप्त करने वाले (अर्जुन के लिए संबोधन)
हे शत्रुओं के दमन कर्ता! इस प्रकार राजर्षियों ने गुरु परम्परा पद्धति द्वारा ज्ञान योग की विद्या प्राप्त की किन्तु अनन्त युगों के साथ यह विज्ञान संसार से लुप्त हो गया।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को यह बता रहे हैं कि जिस योग का वे उपदेश दे रहे हैं, वह कोई नया ज्ञान नहीं है। यह अत्यंत प्राचीन, शाश्वत और दिव्य ज्ञान है जो परंपरा से राजर्षियों को प्राप्त हुआ था।
राजर्षि वे राजा होते थे जो धर्म और आत्मज्ञान में स्थिर होते थे — जैसे इक्ष्वाकु, हरिश्चंद्र, जनक आदि। वे न केवल राजनीति में प्रवीण थे, बल्कि आत्मिक साधना और धर्म के मार्ग पर भी चलने वाले ज्ञानी थे।
परंतु समय के साथ, जैसे-जैसे युग बदले, नैतिकता क्षीण होती गई, और सत्संग, गुरुकुल परंपरा, और योग का यह ज्ञान लुप्तप्राय हो गया। लोग केवल बाह्य कर्मों में उलझ गए और इस दिव्य ज्ञान की गहराई को समझने वाले विरले रह गए।
इसलिए भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि अब वे इस योग को पुनः अर्जुन को बता रहे हैं, ताकि यह ज्ञान फिर से जीवित हो।
भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण
दार्शनिक दृष्टिकोण
यह श्लोक दर्शाता है कि सच्चा आध्यात्मिक ज्ञान समय के साथ लुप्त हो सकता है यदि उसे अभ्यास, श्रद्धा, और परंपरा के माध्यम से संजोया न जाए।
परंपरागत ज्ञान का महत्व केवल उसकी प्राचीनता में नहीं, बल्कि उसमें निहित सत्य, सद्गुण, और आत्मोन्नति की शक्ति में है। यह भी स्पष्ट किया गया है कि सच्चा योग केवल सन्यासियों या तपस्वियों के लिए नहीं, बल्कि जिम्मेदार राजाओं (राजर्षियों) के लिए भी उपयुक्त था — जो योग में रहकर संसार में कर्म करते थे।
प्रतीकात्मक अर्थ
- परम्परा — गुरु-शिष्य परंपरा, जो आध्यात्मिक उत्तराधिकार का प्रतीक है
- राजर्षि — संतुलित व्यक्ति जो सांसारिक और आध्यात्मिक दोनों उत्तरदायित्व निभाता है
- काल — समय जो हर चीज़ को क्षीण कर सकता है यदि उसका पालन न किया जाए
- योग नष्ट होना — आंतरिक साधना, धर्म और विवेक का लोप
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- आत्मिक ज्ञान को केवल पढ़ने या सुनने से नहीं, बल्कि अभ्यास और परंपरा से जीवित रखा जाता है।
- यदि एक समाज में यह योग-संस्कार लुप्त हो जाए, तो वह समाज दिशाहीन हो जाता है।
- समय के साथ सद्गुणों का क्षय स्वाभाविक है; अतः उन्हें निरंतर पोषित करना आवश्यक है।
- श्रीकृष्ण के माध्यम से यह योग फिर से जाग्रत होता है — यह पुनर्जागरण का श्लोक है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मैं अपनी संस्कृति और परंपरा से जुड़े दिव्य ज्ञान को समझने का प्रयास करता हूँ?
क्या मैं अपने जीवन में उस योग को स्थान देता हूँ जो आत्मिक उन्नति का साधन है?
क्या मेरे कर्म, मेरी बुद्धि, और मेरी साधना परंपरा से जुड़ी है या केवल आधुनिक व्यस्तता से ग्रसित है?
क्या मैं अपने जीवन में उस लुप्त होते ज्ञान को पुनः स्थापित करने का प्रयास कर रहा हूँ?
निष्कर्ष
यह श्लोक यह दर्शाता है कि दिव्य ज्ञान — चाहे कितना भी महान हो — यदि वह संरक्षित और अभ्यास में न रखा जाए, तो समय के प्रभाव से लुप्त हो सकता है।
श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को यह योग पुनः बताना केवल एक संवाद नहीं, बल्कि धर्म और योग का पुनर्स्थापन है। यह हमें प्रेरणा देता है कि हम अपनी जीवन यात्रा में इस शाश्वत योग को जानें, समझें और अपनाएँ।
“ज्ञान को जीवित रखना भी एक तप है, और हर युग में एक अर्जुन को इसकी आवश्यकता होती है।”