मूल श्लोक: 12
काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः ।
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा ॥
शब्दार्थ
- काङ्क्षन्तः — आकांक्षी, इच्छुक, जो प्राप्ति की कामना करते हैं
- कर्मणां — कर्मों की, कार्यों की
- सिद्धिम् — सफलता, सिद्धि, उपलब्धि
- यजन्त — पूजा करते हैं, उपासना करते हैं
- इह — यहाँ, इस लोक में
- देवताः — देवता, ईश्वरों, प्राकृतिक शक्तियाँ
- क्षिप्रं — शीघ्र ही, जल्दी
- हि — निश्चय ही, अवश्य
- मानुषे लोके — मानव लोक में, मनुष्यों के बीच
- सिद्धिः — सफलता, सिद्धि
- कर्मजा — कर्मों से उत्पन्न, कर्म के द्वारा प्राप्त
इस संसार में जो लोग सकाम कर्मों में सफलता चाहते हैं वे लोग स्वर्ग के देवताओं की पूजा करते हैं क्योंकि सकाम कर्मों का फल शीघ्र प्राप्त होता है।

विस्तृत भावार्थ
यह श्लोक भगवद्गीता के अध्याय 4 में आता है जहाँ भगवान श्रीकृष्ण कर्म के महत्व और उसके फल की चर्चा कर रहे हैं। यहाँ वे कहते हैं कि इस लोक में देवता भी कर्मों की सिद्धि की कामना रखते हैं। अर्थात्, देवता भी अपने कर्तव्यों को पूरा कर फल की प्राप्ति के लिए उपासना और पूजा करते हैं।
यह बात दर्शाती है कि कर्म मात्र मनुष्यों तक सीमित नहीं हैं, बल्कि ब्रह्माण्ड में सभी जीवों और शक्तियों के लिए आवश्यक हैं। चाहे वे देवता हों, या मनुष्य, कर्म ही सफलता और सिद्धि का स्रोत है।
यहाँ “क्षिप्रं” शब्द से यह बोध होता है कि मानव लोक में कर्मों के द्वारा जल्दी और प्रत्यक्ष फल प्राप्त होता है। इसलिए मनुष्य अपने कर्मों की सिद्धि की तीव्र कामना करता है।
श्रीकृष्ण का यह उपदेश कर्मयोग की महत्ता को दर्शाता है, जिसमें कर्म का त्याग नहीं बल्कि कर्म का सही और समर्पित रूप से पालन आवश्यक बताया गया है।
इस श्लोक से यह भी समझा जा सकता है कि कर्म की पूजा और उसका समर्पण केवल धार्मिक कर्मकांड नहीं, बल्कि कर्म की आध्यात्मिक समर्पित भावना होनी चाहिए, जो हमें हमारे कर्मों में स्थिर और सफल बनाती है।
भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण
दार्शनिक दृष्टिकोण
इस श्लोक में कर्म के प्रति समर्पण और कर्म की महत्ता को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। जीवन में सफलता केवल सोचने या आशा करने से नहीं मिलती, बल्कि कर्म से प्राप्त होती है।
देवता, जो उच्चतम आध्यात्मिक सत्ता के प्रतीक हैं, वे भी कर्म के नियमों के अधीन हैं। इसका तात्पर्य यह है कि कर्म प्रकृति का स्वाभाविक नियम है, जिसे कोई भी परे नहीं जा सकता।
इसलिए, मनुष्य को अपने कर्मों को सही नियत, श्रद्धा और समर्पण के साथ करना चाहिए। सफलता की कामना स्वाभाविक है, लेकिन उसे पाने के लिए कर्मों का परिश्रम और समर्पण अनिवार्य है।
यह श्लोक कर्म के फल में शीघ्रता और निश्चितता का आश्वासन भी देता है, यदि कर्म सही ढंग से किए जाएं।
प्रतीकात्मक अर्थ
- देवता — केवल आकाशीय या दिव्य सत्ता नहीं, बल्कि सभी उच्चतर शक्तियाँ जो कर्म से जुड़े हैं
- कर्म — केवल शारीरिक क्रिया नहीं, बल्कि मन, वाणी और शरीर से किया गया हर कार्य
- सिद्धि — केवल सांसारिक सफलता नहीं, बल्कि आध्यात्मिक उन्नति, मोक्ष या किसी भी लक्ष्य की प्राप्ति
- पूजा या यजन — कर्म के प्रति समर्पण और उसकी भक्ति की भावना
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- कर्म से भाग नहीं जाना चाहिए क्योंकि यही जीवन की मूल शक्ति है।
- चाहे देवता हों या मनुष्य, सभी को अपने कर्तव्य का पालन करना होता है।
- कर्म में निष्ठा और समर्पण से सफलता शीघ्र प्राप्त होती है।
- कर्म का फल निश्चित है, और वह मनुष्य के प्रयासों पर निर्भर है।
- जीवन में सफलता पाने के लिए कर्म योग अपनाना चाहिए, जिसमें फल की इच्छा हो पर उससे आसक्ति न हो।
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मैं अपने कर्मों को ईमानदारी और समर्पण से करता हूँ?
क्या मैं कर्मों के फल की कामना करता हूँ, और साथ ही उसे पाने के लिए कड़ी मेहनत करता हूँ?
क्या मैं समझता हूँ कि कर्म से ही जीवन में सफलता आती है?
क्या मैं कर्म को भगवान की भक्ति और पूजा के रूप में देखता हूँ?
क्या मैं अपने कर्मों में देरी या असफलता से निराश नहीं होता, बल्कि धैर्य रखता हूँ?
निष्कर्ष
भगवान श्रीकृष्ण का यह श्लोक हमें कर्म के महत्व का गहरा ज्ञान प्रदान करता है। यहाँ यह स्पष्ट किया गया है कि इस संसार में सफलता और सिद्धि केवल कर्म के माध्यम से ही प्राप्त होती है।
देवता भी कर्म के फल की कामना रखते हैं और कर्म की पूजा करते हैं, इसलिए मनुष्य के लिए यह अति आवश्यक है कि वह अपने कर्मों को श्रद्धा और समर्पण के साथ करता रहे।
इस संसार में कर्म की प्रधानता और उसकी गति ऐसी है कि यदि कर्म सही और निष्ठापूर्वक किए जाएं तो फल शीघ्र प्राप्त होता है। इसलिए मनुष्य को आलस्य या मोह से दूर रहकर कर्मयोग का अभ्यास करना चाहिए।
इस श्लोक के माध्यम से कर्म के प्रति एक सकारात्मक, आध्यात्मिक और व्यवहारिक दृष्टिकोण मिलता है जो जीवन में सफलता, संतोष और आध्यात्मिक उन्नति की दिशा दिखाता है।
अतः कर्म ही जीवन की आधारशिला है, और उसकी सिद्धि की कामना सभी जीवों, चाहे वे देवता हों या मनुष्य, समान रूप से करते हैं।