मूल श्लोक: 20
त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति सः ॥20॥
शब्दार्थ (शब्दों का विश्लेषण)
- त्यक्त्वा — त्याग कर
- कर्मफलासङ्गम् — कर्मों के फल से आसक्ति
- नित्यतृप्तः — सदैव संतुष्ट, आत्मतृप्त
- निराश्रयः — किसी पर आश्रित नहीं, स्वतंत्र
- कर्मणि अभिप्रवृत्तः अपि — कर्म में प्रवृत्त होते हुए भी, कार्य करते हुए
- नैव किञ्चित्करोति सः — वास्तव में वह कुछ भी नहीं करता (कर्तापन नहीं मानता)
अपने कर्मों के फलों की आसक्ति को त्याग कर ऐसे ज्ञानीजन सदा संतुष्ट रहते हैं और बाह्य विषयों पर निर्भर नहीं होते। कर्मों में संलग्न रहने पर भी वे वास्तव में कोई कर्म नहीं करते।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण उस योगी की स्थिति का वर्णन करते हैं जो कर्म करता है परन्तु उससे बँधता नहीं। वह न कर्मफल की इच्छा करता है, न उसमें लिप्त होता है। उसका मन सदा संतुष्ट रहता है — उसे न बाह्य वस्तुओं की अपेक्षा होती है और न ही कोई आश्रय।
श्रीकृष्ण यहाँ एक परम योगी या ज्ञानी की स्थिति बताते हैं: वह संसार में रहकर कर्म करता है, फिर भी कर्तापन के अहंकार से मुक्त होता है।
यह अवस्था है — निष्काम कर्म योग की पराकाष्ठा।
भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण
दार्शनिक दृष्टिकोण
इस श्लोक का मूल संदेश यह है कि कर्म ही बंधन का कारण नहीं है, आसक्ति और कर्तापन ही बंधन के सूत्र हैं।
- जब व्यक्ति यह सोचता है कि “मैं कर रहा हूँ”, और “मुझे इसका फल चाहिए”, तभी वह बँधता है।
- जब वही व्यक्ति कर्म को कर्तव्य समझकर करता है, फल को ईश्वर पर छोड़ देता है, और “मैं” की भावना से मुक्त हो जाता है — तब वह कर्म करते हुए भी मुक्त हो जाता है।
इस श्लोक में श्रीकृष्ण यही कहते हैं कि:
“जो निरपेक्ष, संतुष्ट और स्वतंत्र है — वही कर्म में प्रवृत्त होकर भी निष्कलंक रहता है।”
प्रतीकात्मक अर्थ
तत्व | प्रतीकात्मक अर्थ |
---|---|
कर्मफलासङ्गम् | कर्म के परिणामों की लालसा और मोह |
त्यक्त्वा | पूरी तरह से त्याग देना, अनासक्त होना |
नित्यतृप्तः | आत्मिक संतोष, जो बाह्य साधनों से निर्भर नहीं |
निराश्रयः | किसी पर निर्भर न रहना, पूर्ण आत्मनिर्भरता |
कर्मण्यभिप्रवृत्तः | संसार में रहते हुए अपने कर्तव्यों का पालन करना |
नैव किञ्चित्करोति | यद्यपि कर्म करता है, फिर भी कर्ता नहीं मानता |
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- कर्म करो, परंतु फल की आकांक्षा मत करो — यही इस श्लोक का मूल संदेश है।
- संतोष और आत्मनिर्भरता ही आत्मा की स्वतंत्रता का द्वार हैं।
- यह संभव है कि व्यक्ति कर्म करते हुए भी कर्तापन से बच जाए — जब वह “मैं” के भाव को त्याग देता है।
- यह योगी की आदर्श स्थिति है, जिसे सिद्धावस्था कहा जा सकता है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
- क्या मैं अपने कर्मों से आसक्त हूँ या केवल कर्तव्य भाव से करता हूँ?
- क्या मैं हर समय फल की अपेक्षा करता हूँ, या उसे ईश्वर पर छोड़ देता हूँ?
- क्या मेरे भीतर स्थायी संतोष है, या मेरी संतुष्टि बाहरी वस्तुओं पर निर्भर है?
- क्या मैं हर परिस्थिति में आत्मनिर्भर रहता हूँ या दूसरों पर भावनात्मक, मानसिक, या भौतिक रूप से निर्भर हूँ?
- क्या मैं कर्म करते हुए कर्तापन के बंधन से मुक्त रह पाता हूँ?
जीवन में उपयोगिता
आधुनिक सन्दर्भ में
आज का मानव अत्यधिक कर्मशील है, परंतु साथ ही:
- फल की चिंता में डूबा हुआ है
- परिणामों से प्रभावित होता है
- संतोष खो चुका है
- और अक्सर दूसरों पर निर्भरता महसूस करता है
इस श्लोक का सन्देश है:
“जियो, कर्म करो, लेकिन भीतर से निर्लिप्त और आत्मतृप्त रहो।”
यही जीवन की कला है — कर्म करते हुए भी आत्मा की स्वतंत्रता बनाए रखना।
उदाहरण से स्पष्टता
- श्रीराम — वन में रहकर भी न शिकायत की, न दुख। कर्म किया, पर फल की चिंता नहीं की। वे नित्यतृप्त और निराश्रय रहे।
- श्रीकृष्ण — महाभारत के सारे कर्म किए, लेकिन किसी भी फल की अपेक्षा नहीं की।
- महात्मा गांधी — उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम लड़ा, परन्तु कभी भी अपनी प्रसिद्धि या सफलता की चिंता नहीं की। वे कर्मयोग के जीवंत प्रतीक थे।
संबंध पिछले श्लोकों से
यह श्लोक अध्याय 4 के उस प्रवाह का भाग है जिसमें श्रीकृष्ण कर्मयोग की महत्ता बताते हैं।
- श्लोक 18 में कहा गया: कर्म में अकर्म को जो देखे, वही ज्ञानी है।
- श्लोक 19 में बताया: जिसके सारे कर्म ज्ञान से जल चुके हैं, वही मुक्ति के योग्य है।
- अब, श्लोक 20 में बताया गया: फल से रहित व्यक्ति, तृप्त और स्वतंत्र रहते हुए कर्म करता है, पर बँधता नहीं।
यह क्रमशः गहराई से बताता है कि किस प्रकार कर्म से मुक्ति संभव है।
निष्कर्ष
भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक के माध्यम से हमें सिखाते हैं कि:
- कर्म करें, लेकिन फल की आसक्ति त्यागें।
- आत्मतृप्त और स्वतंत्र बनें।
- कर्म करते हुए भी “कर्ता” बनने की भावना से बचें।
यही सच्चा कर्मयोग है।
जो व्यक्ति इस अवस्था को प्राप्त करता है:
- उसे संसार बांध नहीं सकता।
- उसे दुःख और सुख समान रूप से प्रभावित नहीं करते।
- वह बाह्य रूप से सक्रिय होते हुए भी भीतर से मुक्त होता है।
जीवन में यही तो चाहिए:
कर्म करते हुए भी शांति और मुक्ति की अनुभूति — यही है “नैव किञ्चित्करोति सः।”