मूल श्लोक: 24
ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ॥
शब्दार्थ
- ब्रह्म-अर्पणम् — ब्रह्म को अर्पण किया गया (समर्पण भाव)
- ब्रह्म हविः — हवन की समिधा (आहुति) भी ब्रह्म है
- ब्रह्माग्नौ — यज्ञ की अग्नि भी ब्रह्म है
- ब्रह्मणा हुतम् — ब्रह्म द्वारा हवन किया गया
- ब्रह्म एव — ब्रह्म ही
- तेन — उस साधक द्वारा
- गन्तव्यं — गमन योग्य, प्राप्त करने योग्य लक्ष्य
- ब्रह्मकर्मसमाधिना — जो व्यक्ति अपने समस्त कर्म ब्रह्म को समर्पित कर ब्रह्म में स्थिर है
जो मनुष्य पूर्णतया भगवत्च्चेतना में तल्लीन रहते हैं उनका हवन ब्रह्म है, हवन सामग्री ब्रह्म है और वह पात्र जिससे आहुति डाली जाती है वह ब्रह्म है, अर्पण कार्य ब्रह्म है और यज्ञ की अग्नि भी ब्रह्म है। ऐसे मनुष्य जो प्रत्येक वस्तु को भगवान के रूप में देखते हैं वे सहजता से उसे पा लेते हैं।

विस्तृत भावार्थ
यह श्लोक योग के अत्यंत गूढ़ सिद्धांत को संक्षेप में प्रस्तुत करता है। भगवान श्रीकृष्ण यहाँ कर्म, उपासना और ज्ञान के अद्वैत भाव को स्पष्ट कर रहे हैं। जब साधक अपने समस्त कर्मों को पूर्ण निष्ठा से, फल की कामना से रहित होकर, ब्रह्म के प्रति समर्पित कर देता है — तब उसके लिए सभी क्रियाएँ ब्रह्ममय हो जाती हैं।
यज्ञ का सम्पूर्ण ढाँचा — अर्पण करने वाला, अर्पण किया जाने वाला, अग्नि जिसमें अर्पण किया जाता है, और यहाँ तक कि जो हवन करता है — सभी को ब्रह्म बताया गया है। इसका अर्थ यह है कि जब व्यक्ति अहंकार, ममता, और फल-इच्छा से मुक्त होकर कर्म करता है, तब उसका प्रत्येक कर्म यज्ञस्वरूप बन जाता है और वह ब्रह्म की अनुभूति कर सकता है।
यह विचार वेदों की “सर्वं खल्विदं ब्रह्म” (सब कुछ ब्रह्म है) की उद्घोषणा से भी मेल खाता है।
भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण
दार्शनिक दृष्टिकोण
इस श्लोक का केंद्रीय दर्शन अद्वैत वेदांत से गहराई से जुड़ा है। इसमें यह स्पष्ट किया गया है कि जब व्यक्ति अपने संपूर्ण अस्तित्व को ब्रह्मरूपी चेतना में लीन कर देता है, तो उसके लिए संसार में भिन्नता नहीं रह जाती — वह सबको ब्रह्म रूप में ही देखता है।
‘करता’, ‘कर्म’, ‘कर्म का साधन’, और ‘फल’ — ये सब उस ब्रह्मदृष्टि से एकाकार हो जाते हैं। तब कर्म बंधन नहीं बनता, बल्कि मुक्ति का साधन बनता है।
प्रतीकात्मक अर्थ
- ब्रह्मार्पणम् — समर्पण की चरम अवस्था जिसमें व्यक्ति अपने ‘मैं’ भाव को त्याग कर ब्रह्म में विलीन हो जाता है
- ब्रह्म हविः — कर्म की वह समिधा जो स्वार्थरहित होती है
- ब्रह्माग्निः — आत्मा की पवित्र ज्वाला, जिसमें आसक्तियाँ भस्म हो जाती हैं
- ब्रह्मणा हुतम् — ज्ञानी पुरुष द्वारा निःस्वार्थ यज्ञ
- ब्रह्मकर्मसमाधिना — वह योगी जो निरंतर ब्रह्मभाव में स्थिर है, उसे कर्म भी ध्यान का रूप लगता है
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
यह श्लोक बताता है कि:
- कर्म में ब्रह्म-दृष्टि विकसित करने से कर्म, बंधन का नहीं बल्कि मोक्ष का मार्ग बन जाता है।
- जो व्यक्ति हर कार्य को ब्रह्म को अर्पित करता है, वह अहंकार और स्वार्थ से मुक्त हो जाता है।
- कर्म, जब ईश्वर को समर्पित होता है, तब वह यज्ञ बन जाता है — और वह यज्ञ ही व्यक्ति को ब्रह्म की ओर ले जाता है।
- बाह्य यज्ञ की अपेक्षा यह आंतरिक यज्ञ अधिक उच्च, पवित्र और मुक्तिदायक है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मैं अपने हर कार्य को ब्रह्म को अर्पित करता हूँ या फल की इच्छा रखता हूँ?
क्या मेरी दृष्टि में कर्म एक यज्ञ है या केवल लाभ प्राप्ति का साधन?
क्या मैं अपने भीतर उस ब्रह्म की अग्नि को पहचान पाया हूँ जिसमें सब अहंकार होम कर सकूँ?
क्या मैं ब्रह्मकर्मसमाधि की स्थिति में हूँ जहाँ कर्म भी ध्यान बन जाए?
क्या मैंने जीवन को ब्रह्मदृष्टि से देखने का अभ्यास किया है?
निष्कर्ष
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ने कर्मयोग और ज्ञानयोग का पूर्ण समन्वय प्रस्तुत किया है। ऐसा ज्ञानी जो हर कर्म को ब्रह्म को अर्पित करता है, उसका कर्म शुद्ध यज्ञ बन जाता है। उसके लिए न तो कोई भेद है, न कोई मोह, न कोई बंधन — केवल ब्रह्म ही ब्रह्म है।
ऐसा ब्रह्मनिष्ठ योगी संसार में रहते हुए भी संसार से परे होता है। उसके लिए हर कार्य पूजा है, हर कर्म ध्यान है, और हर क्षण ब्रह्म की प्राप्ति का साधन है।
इस श्लोक की प्रेरणा यही है कि कर्म को ब्रह्म को समर्पित करके किया जाए — तब जीवन यज्ञमय बन जाता है और साधक ब्रह्म को ही प्राप्त करता है।