मूल श्लोक: 3
स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ॥3॥
शब्दार्थ
- सः एव — वही (योग)
- अयम् — यह
- मया — मेरे द्वारा
- ते — तुझसे, तुम्हें
- अद्य — आज
- प्रोक्तः — कहा गया है, बताया गया है
- पुरातनः — प्राचीन, सनातन
- भक्तः असि मे — तुम मेरे भक्त हो
- सखा च — और मेरे मित्र भी हो
- इति — इसलिए
- रहस्यं हि — यह वास्तव में एक रहस्य है
- एतत् उत्तमम् — यह उत्तम (श्रेष्ठतम) ज्ञान है
उसी प्राचीन गूढ़ योगज्ञान को आज मैं तुम्हारे सम्मुख प्रकट कर रहा हूँ क्योंकि तुम मेरे मित्र एवं मेरे भक्त हो इसलिए तुम इस दिव्य ज्ञान को समझ सकते हो।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण यह स्पष्ट करते हैं कि वे अर्जुन को कोई साधारण ज्ञान नहीं दे रहे हैं, बल्कि वह सनातन और प्राचीन योग है जो पहले सूर्यदेव को दिया गया था। अब वही ज्ञान अर्जुन को इसलिए दिया जा रहा है क्योंकि वह केवल एक योद्धा नहीं, बल्कि श्रीकृष्ण का सच्चा भक्त और मित्र भी है।
श्रीकृष्ण इस ज्ञान को रहस्य कहते हैं, क्योंकि यह केवल बुद्धि से नहीं, श्रद्धा और भक्ति से ही समझा जा सकता है। यह ज्ञान केवल पढ़ने या सुनने से नहीं, आत्मीय संबंध और विश्वास से ग्रहण होता है।
अर्जुन को यह ज्ञान इसलिए प्रदान किया जा रहा है क्योंकि वह न केवल योग्यता रखता है, बल्कि प्रेम और समर्पण से युक्त है।
भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण
दार्शनिक दृष्टिकोण
यह श्लोक गुरु और शिष्य के मध्य संबंध की गहराई को दर्शाता है। केवल वही व्यक्ति इस रहस्यमय ज्ञान को प्राप्त कर सकता है जो भक्ति और सखा-भाव से युक्त हो।
भगवान श्रीकृष्ण “पुरातन योग” को उत्तम रहस्य कहते हैं, क्योंकि यह आत्मा और परमात्मा के बीच की गूढ़ सच्चाई को उजागर करता है। यह ज्ञान एक ऐसा दीपक है जो आत्मा के अंधकार को दूर करता है, लेकिन वह केवल उसी के हाथों में दिया जाता है जो विश्वास और भक्ति से ओत-प्रोत हो।
प्रतीकात्मक अर्थ
- भक्तः असि मे — अर्जुन केवल युद्ध का पात्र नहीं, बल्कि आंतरिक श्रद्धा का प्रतीक है
- सखा च — यह मित्रता दर्शाती है कि परमात्मा और जीवात्मा के बीच घनिष्ठ संबंध संभव है
- रहस्यं ह्येतदुत्तमम् — यह ज्ञान बाहर से सरल दिखता है, लेकिन भीतर अत्यंत गूढ़ और मोक्षदायक है
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- सच्चा ज्ञान केवल भक्ति और विश्वास से ही प्राप्त होता है
- ईश्वर और आत्मा का संबंध केवल आदेश या शक्ति के आधार पर नहीं, बल्कि प्रेम और मित्रता पर आधारित होता है
- आध्यात्मिक ज्ञान गुरु और शिष्य के बीच पारदर्शिता, विश्वास और आत्मीयता से ही संप्रेषित हो सकता है
- जीवन का रहस्य समझने के लिए आत्मसमर्पण और श्रद्धा अनिवार्य है
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मैं भी अर्जुन की तरह ईश्वर का सच्चा भक्त और मित्र बन पाया हूँ?
क्या मेरे भीतर वह पात्रता है कि ईश्वर मुझे अपना श्रेष्ठतम ज्ञान प्रदान करें?
क्या मैं उस ज्ञान को गहराई से समझने की तैयारी और समर्पण रखता हूँ?
क्या मैंने अपने हृदय को भक्ति और मैत्री से भर रखा है, या केवल बुद्धि से समझने की चेष्टा करता हूँ?
निष्कर्ष
यह श्लोक हमें सिखाता है कि परमज्ञान केवल योग्य, समर्पित और श्रद्धावान हृदयों को ही प्राप्त होता है। अर्जुन को यह ज्ञान इसलिए प्राप्त हुआ क्योंकि वह केवल वीर नहीं, बल्कि श्रीकृष्ण का भक्त और सखा भी था।
हम सबके लिए यह प्रेरणा है कि यदि हम भी भक्ति और मित्रता के पथ पर ईश्वर के समीप जाते हैं, तो वह हमें भी अपने उस “पुरातन और रहस्यपूर्ण योग” में सम्मिलित कर सकते हैं। सच्चा संबंध – चाहे वह भक्त का हो या सखा का – ही ज्ञान का वास्तविक सेतु है।