Bhagavad Gita: Hindi, Chapter 4, Sloke 33

मूल श्लोक: 33

श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप।
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते॥32॥

शब्दार्थ

  • श्रेयान् — श्रेष्ठ, उत्तम
  • द्रव्यमयात् — पदार्थयुक्त, भौतिक
  • अद्यज्ञात् — आज के यज्ञ से, यहाँ द्रव्यमय यज्ञ अर्थात् भौतिक वस्तुओं से किया गया यज्ञ
  • ज्ञानयज्ञः — ज्ञान से किया गया यज्ञ
  • परन्तप — हे पराक्रमी अर्जुन!
  • सर्वं — समस्त
  • कर्माखिलं — सारे कर्म
  • पार्थ — हे पार्थ (अर्जुन के लिए संबोधन)
  • ज्ञाने परिसमाप्यते — ज्ञान द्वारा समाप्त हो जाता है, विनष्ट हो जाता है

हे शत्रुओं के दमन कर्ता! ज्ञान युक्त होकर किया गया यज्ञ किसी प्रकार के भौतिक या द्रव्य यज्ञ से श्रेष्ठ है। हे पार्थ! अंततः सभी यज्ञों की परिणति दिव्य ज्ञान में होती है।

विस्तृत भावार्थ

इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को समझा रहे हैं कि यज्ञ के दो रूप होते हैं — एक भौतिक वस्तुओं, जैसे अग्नि, जल आदि में आहुति देने वाला यज्ञ, और दूसरा ज्ञान से किया गया यज्ञ।

श्रीकृष्ण कहते हैं कि ज्ञान यज्ञ भौतिक यज्ञ से श्रेष्ठ है। क्योंकि भौतिक यज्ञ केवल कर्म का प्रदर्शन है, जिसमें सामग्री, संस्कार, और कर्म होते हैं, परंतु ज्ञान यज्ञ कर्मों की जड़ तक पहुँचता है और उन्हें समाप्त करता है।

यह ज्ञान यज्ञ वह है जो आत्मा की वास्तविक समझ को जगाता है, मनुष्य को कर्म के बंधन से मुक्त करता है।

ज्ञान का यज्ञ वह मार्ग है जो मोक्ष की ओर ले जाता है, क्योंकि ज्ञान से सभी कर्म अपने प्रभाव से समाप्त हो जाते हैं।

भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण

द्रव्यमय यज्ञ और ज्ञान यज्ञ का भेद

द्रव्यमय यज्ञ में आग में हवन सामग्री अर्पित की जाती है। यह कर्मकाण्ड का बाह्य रूप है।

यह यज्ञ सामाजिक और धार्मिक दायित्वों की पूर्ति के लिए होता है। परंतु इसका परिणाम सीमित होता है।

वहीं ज्ञान यज्ञ में व्यक्ति अपने मन और बुद्धि के द्वारा परम सत्य का ज्ञान प्राप्त करता है। यह यज्ञ आंतरिक होता है, कर्मों की माया को समाप्त करता है।

ज्ञान यज्ञ की महत्ता

ज्ञान यज्ञ से ही मनुष्य कर्मों के फल की अपेक्षा से ऊपर उठता है।

यह यज्ञ अंतर्मुखी है और अज्ञान के अंधकार को दूर करता है।

जब मनुष्य ज्ञान यज्ञ में लीन होता है, तो वह कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाता है।

सर्व कर्मों का नाश

यहाँ कहा गया है कि ज्ञान यज्ञ से समस्त कर्म समाप्त हो जाते हैं।

इसका अर्थ है कि कर्मयोग, भक्ति योग, और ज्ञान योग में अन्तर्निहित ज्ञान योग सभी कर्मों के परिणामों को नष्ट कर देता है।

ज्ञान के प्रकाश में कर्म फलहीन हो जाते हैं, जिससे मनुष्य मोक्ष की ओर अग्रसर होता है।

दार्शनिक दृष्टिकोण

  • कर्म और ज्ञान का सामंजस्य
    श्रीमद्भगवद्गीता में कर्म, भक्ति और ज्ञान योग का समन्वय बताया गया है।
  • ज्ञान की श्रेष्ठता
    जहाँ कर्म और यज्ञ बाह्य रूप हैं, वहीं ज्ञान आंतरिक है और इसका प्रभाव स्थायी होता है।
  • मोक्ष का मार्ग
    ज्ञान के बिना कर्म बंधन उत्पन्न करते हैं। ज्ञान से बंधन खत्म होते हैं और आत्मा मुक्त होती है।

प्रतीकात्मक अर्थ

प्रतीकअर्थ
द्रव्यमयाद्यज्ञबाह्य कर्मकाण्ड या भौतिक यज्ञ
ज्ञानयज्ञःआंतरिक ज्ञान का यज्ञ, आत्मा की साधना
सर्वं कर्माखिलंसमस्त कर्म और उनके फल
परिसमाप्यतेसमाप्त हो जाना, नष्ट हो जाना

आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा

  • केवल कर्म करना पर्याप्त नहीं, उनके पीछे ज्ञान होना आवश्यक है।
  • बाह्य कर्मकाण्ड के अतिरिक्त आंतरिक ज्ञान की साधना करनी चाहिए।
  • ज्ञान यज्ञ से कर्मों के बंधन समाप्त होते हैं।
  • जीवन में कर्मों के साथ-साथ ज्ञान की भी प्राप्ति आवश्यक है।
  • मोक्ष के लिए ज्ञान का यज्ञ सर्वोपरि है।

आत्मचिंतन के प्रश्न

क्या मैं अपने कर्मों के साथ ज्ञान को भी महत्व देता हूँ?
क्या मेरे कर्म ज्ञान के अनुरूप हैं?
क्या मैं केवल कर्मकाण्डों में लिप्त होकर ज्ञान के मार्ग से विमुख तो नहीं हूँ?
क्या मैं अपने कर्मों को ज्ञान से शुद्ध करता हूँ?
क्या मैं ज्ञान को अपने जीवन का परम उद्देश्य मानता हूँ?

निष्कर्ष

यह श्लोक हमें यह महत्त्वपूर्ण शिक्षा देता है कि भौतिक यज्ञ, जो कर्मकाण्डों में किया जाता है, के मुकाबले ज्ञान से किया गया यज्ञ श्रेष्ठ है।

ज्ञान से ही समस्त कर्म समाप्त होते हैं और मनुष्य अपने कर्मों के बंधनों से मुक्त होकर मोक्ष की प्राप्ति करता है।

इस प्रकार, जीवन में कर्मों के साथ-साथ ज्ञान की साधना अत्यंत आवश्यक है।

श्रीकृष्ण हमें यह भी बताते हैं कि ज्ञान का यज्ञ मोक्ष का श्रेष्ठ मार्ग है, जिसके द्वारा व्यक्ति जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त हो सकता है।

इसलिए ज्ञान को श्रेष्ठ यज्ञ मानते हुए उसे जीवन का मुख्य उद्देश्य बनाना चाहिए।

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