मूल श्लोक: 34
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः॥
शब्दार्थ
- तत् — वह (ज्ञान)
- विद्धि — जानो, समझो
- प्रणिपातेन — नम्रता पूर्वक शीश झुकाकर, पूर्ण समर्पण से
- परिप्रश्नेन — यथार्थ प्रश्न पूछकर, संकोच न करते हुए
- सेवया — सेवा या समर्पित होकर
- उपदेक्ष्यन्ति — उपदेश देंगे, सिखाएंगे
- ते — तुम्हें
- ज्ञानं — ज्ञान
- ज्ञानिनः — ज्ञानी लोग, विद्वान
- तत्त्वदर्शिनः — जो सत्य के साक्षी हैं, जो तत्त्व को स्पष्ट समझते हैं
आध्यात्मिक गुरु के पास जाकर सत्य को जानो। विनम्र होकर उनसे ज्ञान प्राप्त करने की जिज्ञासा प्रकट करते हुए ज्ञान प्राप्त करो और उनकी सेवा करो। ऐसा सिद्ध सन्त तुम्हें दिव्य ज्ञान प्रदान कर सकता है क्योंकि वह परम सत्य की अनुभूति कर चुका होता है।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को यह समझा रहे हैं कि सच्चा और उच्चतम ज्ञान किसी भी व्यक्ति को स्वतः नहीं मिल जाता। वह केवल तभी प्राप्त होता है जब मनुष्य नम्रता, समर्पण, श्रद्धा और दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ गुरु के पास जाता है, उनसे सही प्रकार के प्रश्न पूछता है, और उनकी सेवा करता है।
‘प्रणिपातेन’ का अर्थ है पूर्ण विनम्रता के साथ गुरु के चरणों में झुकना, अपने अहंकार और स्वाभिमान को त्याग देना।
‘परिप्रश्नेन’ का तात्पर्य है कि प्रश्न पूछने में संकोच न करना, अपने संशयों और जिज्ञासाओं को स्पष्टता से व्यक्त करना।
‘सेवया’ से आशय है कि गुरु की सेवा में लगना, चाहे वह सेवा शारीरिक हो, मानसिक हो या वैचारिक। सेवा का अर्थ है गुरु की आज्ञा का पालन करना, उनका आदर करना, और उन्हें श्रद्धा से सुनना।
जब ये तीनों गुण एकत्र हो जाते हैं, तब ज्ञानिन्तत्त्वदर्शी गुरु तुम्हें वह ज्ञान देंगे, जो तुम्हारे जीवन के प्रश्नों का समाधान करेगा, और तुम्हें मोक्ष या मुक्ति की ओर ले जाएगा।
दार्शनिक दृष्टिकोण
यह श्लोक गुरु-शिष्य परंपरा की महत्ता को उजागर करता है। ज्ञान की प्राप्ति केवल अध्ययन और श्रवण से नहीं होती, बल्कि उसके लिए गुरु की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।
- गुरु वह माध्यम है जो तत्त्वज्ञान की गूढ़ता को सरलता से समझाता है।
- गुरु के प्रति श्रद्धा और समर्पण से मनुष्य अपने अहंकार को नियंत्रित करता है और ज्ञान ग्रहण के लिए तैयार होता है।
- प्रश्न पूछने का साहस जिज्ञासा और बुद्धिमत्ता का परिचायक है, जो ज्ञान की प्राप्ति के लिए अनिवार्य है।
- सेवा का भाव गुरु के प्रति श्रद्धा और सम्मान को दर्शाता है, जिससे ज्ञान का संचार प्रभावी होता है।
इस प्रकार, यह श्लोक न केवल ज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया बताता है, बल्कि मनुष्य के स्वभाव में आवश्यक गुणों — नम्रता, जिज्ञासा और सेवा — का भी महत्व दर्शाता है।
प्रतीकात्मक अर्थ
- प्रणिपातेन — अहंकार का परित्याग, विनम्रता की मुद्रा
- परिप्रश्नेन — संशय और जिज्ञासा का साहस, बुद्धि का जागरूक होना
- सेवया — समर्पण, गुरु के प्रति निष्ठा और सम्मान
- ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः — वह गुरु जो सत्य को देख चुका है, जिन्होंने अनुभव और अनुभूति के द्वारा तत्त्व को समझा है
- ज्ञानं उपदेक्ष्यन्ति — केवल पढ़ाई या सुनाई गई बातें नहीं, बल्कि जीवन और आत्मा का परम सत्य सिखाना
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- ज्ञान प्राप्ति का मार्ग गुरु के पास ही जाता है। बिना गुरु के उचित मार्गदर्शन के जिज्ञासा पूर्ण नहीं होती।
- अहंकार और स्वाभिमान का त्याग करना ज्ञान प्राप्ति की पहली शर्त है।
- अपने संशयों को छिपाने की बजाय खुलकर प्रश्न पूछना चाहिए। यही बुद्धिमत्ता का परिचायक है।
- गुरु की सेवा करना ज्ञान की प्राप्ति में सहायक होता है। सेवा से मन की शुद्धि होती है और ज्ञान ग्रहण की क्षमता बढ़ती है।
- यह श्लोक यह भी सिखाता है कि ज्ञान केवल बाहरी पुस्तक ज्ञान नहीं, बल्कि गुरु के अनुभव और आंतरिक अनुभूति से आता है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मैं अपने अहंकार को त्यागकर गुरु के प्रति पूर्ण नम्रता रखता हूँ?
क्या मैं अपने संशय और जिज्ञासा को गुरु से पूछने में संकोच करता हूँ या स्पष्टता से प्रश्न पूछता हूँ?
क्या मैं गुरु की सेवा करता हूँ और उनके निर्देशों का पालन करता हूँ?
क्या मैं गुरु के ज्ञान को समझने के लिए पूरी निष्ठा और श्रद्धा से प्रयास करता हूँ?
क्या मैं जीवन में अपने अनुभव के माध्यम से तत्त्व को समझने का प्रयास करता हूँ?
निष्कर्ष
भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक के माध्यम से यह संदेश देते हैं कि सच्चा ज्ञान केवल गुरु के सान्निध्य में और उचित मार्गदर्शन के द्वारा ही प्राप्त होता है। ज्ञान की प्राप्ति के लिए तीन महत्वपूर्ण गुण आवश्यक हैं — नम्रता, जिज्ञासा (प्रश्न पूछना), और सेवा।
यह श्लोक गुरु-शिष्य संबंध की महत्ता, अहंकार त्याग, और सक्रिय जिज्ञासा को उजागर करता है। जब ये तीनों गुण मिलकर कार्य करते हैं, तब ज्ञान प्राप्त होता है जो जीवन के सभी प्रश्नों का समाधान करता है और आत्मा को मुक्त करता है।
इसलिए, यदि हम जीवन में उच्चतम ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं, तो हमें अपने अहंकार को छोड़कर, गुरु के पास विनम्रतापूर्वक जाना चाहिए, अपने संशयों को स्पष्ट रूप से पूछना चाहिए और गुरु की सेवा में समर्पित होना चाहिए। तभी हम सत्य ज्ञान के साक्षी बनेंगे और जीवन के वास्तविक उद्देश्य को समझ पाएंगे।