मूल श्लोक: 36
अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः ।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि ॥
शब्दार्थ
- अपि च — यदि भी
- एसि — तुम हो
- पापेभ्यः सर्वेभ्यः — सभी पापों से
- पापकृत्तमः — सबसे बड़ा पापी, अत्यंत पाप करने वाला
- सर्वं — सब कुछ, सम्पूर्ण
- ज्ञानप्लवेनैव — ज्ञान के जलपोत (प्लव) द्वारा, ज्ञान के नैव जलयान से
- वृजिनं — दुश्मन, शत्रु, बाधा, अज्ञान
- सन्तरिष्यसि — पार कर जाओगे, विनाश कर दोगे
जिन्हें समस्त पापियों में महापापी समझा जाता है, वे भी दिव्यज्ञान की नौका में बैठकर संसार रूपी सागर को पार करने में समर्थ हो सकते हैं।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को यह आश्वासन देते हैं कि चाहे व्यक्ति कितना भी बड़ा पापी क्यों न हो, उसका अज्ञान और पाप का बोझ कितना भी भारी क्यों न हो, वह ज्ञान के नौका (ज्ञान के माध्यम से प्राप्त उच्चतम विवेक और आत्मबोध) के सहारे अपने सभी पापों को पार कर सकता है।
यहाँ ‘पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः’ से आशय है कि कोई भी व्यक्ति जो पापों में डूबा हो, यहां तक कि अत्यधिक पापी हो, उसे निराश होना नहीं चाहिए। ज्ञान का वह सागर पार करने का उपाय है, जो मनुष्य को उसके पापों, पाप कर्मों और अज्ञान के अंधकार से मुक्त करता है।
‘ज्ञानप्लवेनैव’ शब्द से यह सूचित होता है कि केवल ज्ञान ही वह नाव या जलयान है, जो मनुष्य को जन्म-मृत्यु के चक्र (संसार) के महासागर से पार लगाता है। ज्ञान ही वह सशक्त साधन है जिससे व्यक्ति अपने पाप और बंधनों से मुक्त हो सकता है।
इस प्रकार, भगवान अर्जुन को यह समझा रहे हैं कि ज्ञान की प्राप्ति से जीवन के सभी पाप, संकटकाल, दुःख और बंधन समाप्त हो जाते हैं। इस ज्ञान को अपनाकर व्यक्ति अपने जीवन को परम शांति और मोक्ष की ओर ले जाता है।
दार्शनिक दृष्टिकोण
यह श्लोक भगवद्गीता के आध्यात्मिक उपदेशों में सबसे आश्वासन देने वाले वाक्यों में से एक है। यहाँ पर ज्ञान को मोक्ष का सर्वोच्च साधन बताया गया है।
- जीवन में अनेक प्रकार के पाप और कर्मबन्धन होते हैं, जो जीव को अज्ञान और दुःख की ओर ले जाते हैं।
- परंतु, यदि कोई व्यक्ति ज्ञान के मार्ग पर चलता है, तो उसके लिए यह पापों का बोझ भारी नहीं रह जाता।
- ज्ञान से व्यक्ति अपने कर्मों के परिणामों को समझता है, कर्मों के बंधन से ऊपर उठ जाता है और आत्मस्वरूप की अनुभूति करता है।
- इस ज्ञान के प्रकाश से पाप और अज्ञान दोनों का नाश हो जाता है।
यह श्लोक यह भी स्पष्ट करता है कि मोक्ष या मुक्ति कोई विशेष योगी, संत या ब्राह्मण का ही अधिकार नहीं है। यह सभी के लिए खुला है, भले ही वह कितना भी बड़ा पापी क्यों न हो। केवल ज्ञान का साक्षात्कार आवश्यक है।
प्रतीकात्मक अर्थ
- पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः — यह मनुष्य के अंदर छिपे पाप, दोष, बुराई और अज्ञान के रूपक हैं। यह दर्शाता है कि किसी व्यक्ति की पूर्व की गलतियाँ, दुष्ट कर्म, मानसिक दोष चाहे कितनी भी बड़ी क्यों न हों, वे उसका अंतिम भाग नहीं हैं।
- ज्ञानप्लवेनैव — यहाँ ज्ञान का अर्थ केवल बौद्धिक ज्ञान नहीं, बल्कि आध्यात्मिक ज्ञान, जो व्यक्ति को वास्तविक स्वरूप और जीवन के उद्देश्य से अवगत कराता है। यह ज्ञान पापों के महासागर को पार लगाने वाला नौका है।
- वृजिनं सन्तरिष्यसि — वृजिन यानी शत्रु, यहाँ पाप और अज्ञान को दर्शाता है। ज्ञान के माध्यम से इन्हें पार कर मोक्ष प्राप्ति संभव होती है।
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- यह श्लोक मनुष्य को निराशा से दूर रखने वाला है। जीवन में अनेक बार हम अपने पापों, दोषों और गलतियों से घिरे होते हैं और सोचते हैं कि माफी और मुक्ति सम्भव नहीं। परंतु यह श्लोक बताता है कि ज्ञान की सहायता से हर व्यक्ति पापों से मुक्त हो सकता है।
- ज्ञान से हम अपने कर्मों के फल को समझते हैं, अपने अहंकार और इच्छाओं पर नियंत्रण पाते हैं, और अपने वास्तविक स्वरूप को जानते हैं। यह ज्ञान ही हमें सही मार्ग दिखाता है।
- कोई भी पापी व्यक्ति, यदि सच्चे मन से ज्ञान प्राप्त करना चाहता है और उसका अनुसरण करता है, तो वह अपने अज्ञान के अंधकार से बाहर निकल सकता है।
- इस श्लोक से यह भी शिक्षा मिलती है कि ज्ञान से बड़ी कोई शुद्धि और मोक्ष की कुंजी नहीं है। कर्म से उत्पन्न पापों का नाश केवल ज्ञान से ही सम्भव है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मैं अपने अतीत के पापों और गलतियों से घबराता हूँ या ज्ञान के सहारे उनसे उबरने का प्रयास करता हूँ?
क्या मैं ज्ञान को जीवन का सर्वोच्च साधन मानता हूँ जो मुझे पापों और अज्ञान से मुक्त कर सकता है?
क्या मेरे मन में यह विश्वास है कि मैं जितना भी बड़ा पापी क्यों न हूँ, ज्ञान से मैं अपने जीवन को सुधार सकता हूँ?
क्या मैं अपने अज्ञान के अंधकार को दूर करने के लिए सतत ज्ञानार्जन करता हूँ?
क्या मैं अपने जीवन में पाप और अधर्म से दूर रहकर ज्ञान और धर्म के मार्ग पर चलने का प्रयास करता हूँ?
निष्कर्ष
यह श्लोक मनुष्य को आश्वासन और प्रेरणा देता है कि कोई भी व्यक्ति, चाहे वह कितना भी बड़ा पापी क्यों न हो, यदि ज्ञान के समुद्र में डूब जाए और उसके साहसिक नौका पर सवार हो जाए, तो वह अपने सभी पापों को पार कर सकता है।
भगवान श्रीकृष्ण हमें यह सिखाते हैं कि ज्ञान से बढ़कर कोई शुद्धि या मुक्ति का मार्ग नहीं है। ज्ञान के बिना मनुष्य पापों के महासागर में डूबा रह जाता है, लेकिन ज्ञान का प्रकाश उसे अंधकार से बाहर निकालता है।
इसलिए हमें निरंतर ज्ञान के साधन में लगे रहना चाहिए, अपने मन को पापों और अधर्म से मुक्त करने का प्रयास करना चाहिए और यह विश्वास रखना चाहिए कि ज्ञान के माध्यम से हम सभी बाधाओं और पापों को पार कर सकते हैं।
यह श्लोक जीवन में आशा और उत्साह बनाए रखता है और सभी को प्रोत्साहित करता है कि पापी या अज्ञान में डूबा व्यक्ति भी ज्ञान के सहारे उच्चतम आध्यात्मिक लक्ष्य प्राप्त कर सकता है।