मूल श्लोक: 38
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥
शब्दार्थ
- न हि — निश्चित ही नहीं
- ज्ञानेन — ज्ञान से
- सदृशं — समान, तुल्य
- पवित्रम् — पवित्र, शुद्ध
- इह — इस लोक में
- विद्यते — मिलता है, होता है
- तत् स्वयम् — वह स्वयं
- योगसंसिद्धः — योग से सिद्ध, योग के द्वारा सिद्ध हुआ व्यक्ति
- कालेन — समय के साथ, धीरे-धीरे
- आत्मनि — आत्मा में, अपने भीतर
- विन्दति — प्राप्त करता है, अनुभव करता है
इस संसार में दिव्यज्ञान के समान कुछ भी शुद्ध नहीं है। जो मनुष्य योग के अभ्यास द्वारा मन को शुद्ध कर लेता है वह हृदय में इस ज्ञान को प्राप्त करता है।

विस्तृत भावार्थ
यह श्लोक भगवद्गीता के अध्याय चार में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए ज्ञान का सार प्रस्तुत करता है। यहाँ कहा गया है कि इस संसार में ज्ञान जैसा पवित्र और शुद्ध कुछ नहीं है। अज्ञान, अंधकार और पाप से भरे संसार में ज्ञान ही वह प्रकाश है जो मनुष्य को शुद्धता, मुक्तता और आध्यात्मिक प्रगति की ओर ले जाता है।
‘न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते’ — इसका अर्थ है कि संसार में ऐसा कोई भी साधन या वस्तु नहीं जो ज्ञान के समान पवित्रता प्रदान करे। धन, यज्ञ, तप या अन्य कोई कर्म ज्ञान के समान नहीं हो सकते।
‘तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति’ — यह बताता है कि जो व्यक्ति योग का अभ्यास करता है, वह समय के साथ-साथ स्वयं ही उस उच्चतम शुद्ध ज्ञान को आत्मसात् कर लेता है। योगसाधना के द्वारा वह व्यक्ति धीरे-धीरे अपनी आत्मा में उस ज्ञान की अनुभूति करता है जो उसकी आत्मा को पवित्र बनाता है।
यह ज्ञान केवल बौद्धिक या सांसारिक ज्ञान नहीं, बल्कि आध्यात्मिक ज्ञान है, जो मनुष्य को जीवन के सत्य और परमात्मा के बोध से अवगत कराता है। योगसाधना से जो प्राप्ति होती है, वह स्थायी और परिवर्तनरहित होती है, जो मनुष्य को जीवन के दुखों और भ्रमों से मुक्त करती है।
दार्शनिक दृष्टिकोण
इस श्लोक में ज्ञान की महत्ता और योग की प्रगति का गूढ़ दर्शन निहित है। योग और ज्ञान दोनों मिलकर आत्मा को परम शुद्धि और मुक्ति की ओर ले जाते हैं। योगसिद्धि का अर्थ है कि व्यक्ति अपने अंदर के भ्रम, दोष और अज्ञान को धीरे-धीरे हटाता है और आत्मा के शुद्ध रूप का अनुभव करता है।
- ज्ञान की शुद्धता: ज्ञान एक ऐसी विधि है जो मनुष्य को आंतरिक शुद्धि प्रदान करती है। इसके द्वारा न केवल कर्मों का फल समझ में आता है, बल्कि व्यक्ति अपने वास्तविक स्वरूप को भी जान पाता है।
- योग का महत्व: योग केवल शरीर या सांसारिक साधना नहीं है, बल्कि वह साधना है जो मन, बुद्धि और आत्मा को एकीकृत करती है और अंततः व्यक्ति को आत्मज्ञान की प्राप्ति कराती है।
- स्वयं की प्राप्ति: यह श्लोक स्पष्ट करता है कि योग से प्राप्त ज्ञान कोई बाहरी वस्तु नहीं, बल्कि स्वयं में अनुभूत अनुभव है, जो समय के साथ जाग्रत होता है। योगसाधक धीरे-धीरे इस अनुभव को अपने भीतर जागृत करता है।
प्रतीकात्मक अर्थ
- ज्ञान — यहाँ ज्ञान का अर्थ है परिपूर्ण, शुद्ध और आत्मतत्त्व का ज्ञान।
- पवित्रता — पवित्रता का अर्थ है वह शुद्धता जो मन, बुद्धि और आत्मा को दोषमुक्त कर देती है।
- योगसंसिद्धः — वह व्यक्ति जो योग की साधना से सिद्ध हो चुका है, यानी जिसने अपने अंदर योग के माध्यम से शुद्धि, एकता और आत्मबोध प्राप्त किया है।
- कालेन आत्मनि विन्दति — समय के साथ व्यक्ति के भीतर धीरे-धीरे ज्ञान की पूर्ति होती है, यह अनुभव स्थायी और आत्मीय होता है।
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- ज्ञान को जीवन का सर्वोच्च और पवित्रतम साधन माना गया है। यह ज्ञान व्यक्ति को जीवन के भ्रम से निकालता है और सत्य की ओर ले जाता है।
- योग साधना के बिना यह ज्ञान पूर्ण नहीं हो सकता, क्योंकि योग मन, बुद्धि और आत्मा को शुद्ध करता है और व्यक्ति को उच्चतम आध्यात्मिक अवस्था में पहुंचाता है।
- जीवन में धीरे-धीरे योगसाधना द्वारा ज्ञान का अनुभव प्राप्त होता है, जो स्थायी शांति और मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग है।
- इस श्लोक से हमें धैर्य, नियमित अभ्यास और निरंतर साधना की प्रेरणा मिलती है क्योंकि ज्ञान और योग की प्राप्ति एक दिन में नहीं होती, बल्कि समय के साथ होती है।
- जीवन में केवल ज्ञान की महत्ता समझनी चाहिए और योग के माध्यम से उसे अपने अंदर आत्मसात करना चाहिए।
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मैं जीवन में ज्ञान को सर्वोच्च स्थान देता हूँ?
क्या मैं योग के नियमित अभ्यास से अपने अंदर शुद्धता और ज्ञान को विकसित कर रहा हूँ?
क्या मैं यह समझता हूँ कि ज्ञान की प्राप्ति समयसाध्य प्रक्रिया है और धैर्य आवश्यक है?
क्या मेरा जीवन योग के सिद्धांतों के अनुरूप है, जिससे मुझे आत्मबोध प्राप्त हो सके?
क्या मैं अपने अंदर की गलत धारणाओं और अज्ञान को दूर करने के लिए निरंतर प्रयास करता हूँ?
क्या मैं अपने मन, बुद्धि और कर्मों को योग के अनुसार नियंत्रित करता हूँ?
निष्कर्ष
भगवद्गीता का यह श्लोक हमें यह गूढ़ संदेश देता है कि इस संसार में ज्ञान जैसा कोई और पवित्र वस्तु नहीं है। यह ज्ञान ही मनुष्य को जीवन के सभी पाप, अज्ञान और मोह से मुक्त करता है।
योग के अभ्यास से व्यक्ति अपने अंदर इस ज्ञान की प्राप्ति करता है, जो समय के साथ उसकी आत्मा को शुद्ध और मुक्त बनाता है। यह ज्ञान बाहरी नहीं, बल्कि आत्मा के अनुभव में अन्तर्निहित है।
इसलिए जीवन में निरंतर योग साधना और ज्ञानार्जन आवश्यक है ताकि मनुष्य स्वयं को पूर्ण रूप से जान सके, अपने भ्रमों से मुक्त हो और परम शांति का अनुभव कर सके।
यह श्लोक हमारे लिए यह प्रेरणा है कि जीवन में ज्ञान को सर्वोच्च प्राथमिकता दें, योग के मार्ग पर दृढ़ता से चलें, और समय के साथ स्वयं के अंदर पवित्रता और शुद्धता का अनुभव करें।
इस प्रकार, भगवद्गीता का यह संदेश हम सभी के लिए एक आदर्श मार्गदर्शक है, जो जीवन को सार्थक, शांतिपूर्ण और आध्यात्मिक रूप से उन्नत बनाता है।