मूल श्लोक: 39
श्रद्धावान् लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ॥39॥
शब्दार्थ
- श्रद्धावान् — जिसकी श्रद्धा हो, आस्था वाला व्यक्ति
- लभते — प्राप्त करता है
- ज्ञानम् — आत्मज्ञान, सत्य का बोध
- तत्परः — उसी में रत, पूर्णतः समर्पित
- संयत-इन्द्रियः — जिसकी इन्द्रियाँ संयमित हों
- लब्ध्वा — प्राप्त कर
- पराम् शान्तिम् — परम शांति, निर्वाण, आध्यात्मिक शांति
- अचिरेण — शीघ्र
- अधिगच्छति — प्राप्त करता है
वे जिनकी श्रद्धा अगाध है और जिन्होंने अपने मन और इन्द्रियों पर नियंत्रण प्राप्त कर लिया है, वे दिव्य ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। इस दिव्य ज्ञान के द्वारा वे शीघ्र ही परम शांति को प्राप्त कर लेते हैं।

विस्तृत भावार्थ
भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में एक आध्यात्मिक साधक के गुणों और उनकी परिणति का वर्णन कर रहे हैं। वे कहते हैं कि आत्मज्ञान की प्राप्ति न तो केवल पठन-पाठन से होती है, न ही बाहरी कर्मकांडों से। आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए तीन आवश्यक गुणों की आवश्यकता होती है:
- श्रद्धा
- तत्परता (पूर्ण समर्पण और रुचि)
- इन्द्रिय संयम
जिस व्यक्ति के भीतर ये तीनों गुण होते हैं, वह आत्मज्ञान की दिशा में अग्रसर होता है। और जब वह आत्मज्ञान प्राप्त कर लेता है, तब उसे संसार के सुख-दुःख से परे “परम शांति” की प्राप्ति होती है, जिसे गीता में मोक्ष, निर्वाण या ब्रह्म स्थिति कहा गया है।
भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण
१. श्रद्धा का महत्व
- श्रद्धा का अर्थ केवल विश्वास नहीं, बल्कि अंदरूनी निष्ठा और विश्वास के साथ साथ गुरु, शास्त्र और परमात्मा के प्रति समर्पण है।
- बिना श्रद्धा के ज्ञान एक बोझ बन जाता है, लेकिन श्रद्धा ज्ञान को हृदय में समाहित करती है।
- श्रद्धा ही वह बीज है जिससे आत्मज्ञान का वृक्ष पनपता है।
२. तत्परता या तत्पर भाव
- साधक को केवल ज्ञान की इच्छा नहीं बल्कि उसमें लीनता होनी चाहिए।
- “तत्परः” का अर्थ है उस एक लक्ष्य की प्राप्ति में पूर्ण रूप से लगे रहना।
- जब साधक ज्ञान के प्रति गंभीरता दिखाता है और अपने जीवन को उसी अनुसार ढालता है, तभी वह ज्ञान को अपने जीवन में उतार सकता है।
३. संयत इन्द्रियाँ
- इन्द्रियाँ मनुष्य को भटकाने वाली शक्तियाँ हैं।
- यदि ये अनुशासित न हों तो व्यक्ति बाहर की वस्तुओं में उलझकर रह जाता है और ज्ञान की गहराई तक नहीं पहुँच पाता।
- संयम वह नींव है जिस पर आत्मज्ञान का भवन खड़ा होता है।
४. ज्ञान की प्राप्ति और शांति की ओर यात्रा
- जब व्यक्ति श्रद्धा, तत्परता और संयम के साथ ज्ञान प्राप्त करता है, तब वह “ज्ञान-लाभ” के अगले चरण — परम शांति — की ओर बढ़ता है।
- यह शांति केवल मानसिक या भावनात्मक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक स्तर पर होती है, जहाँ व्यक्ति सुख-दुःख से परे निर्विकार स्थिति में स्थित हो जाता है।
- यह शांति आत्मा की अपनी स्वरूप स्थिति है — ब्रह्मभाव, निर्विकल्प स्थिति।
दार्शनिक दृष्टिकोण
- गीता का यह श्लोक सगुण और निर्गुण साधना दोनों में समभाव रखता है।
- सगुण भक्त के लिए श्रद्धा, समर्पण और भक्ति के माध्यम से ज्ञान का मार्ग खुलता है।
- निर्गुण ज्ञानी के लिए यह साधना विवेक, वैराग्य और इन्द्रिय निग्रह के माध्यम से होती है।
- दोनों ही मार्गों का अंतिम लक्ष्य आत्मज्ञान और शांति है।
प्रतीकात्मक अर्थ
तत्व | प्रतीकात्मक अर्थ |
---|---|
श्रद्धावान् | अंतःकरण की निष्ठा और ईश्वर विश्वास |
तत्परः | साधक की सक्रियता और पूर्ण समर्पण |
संयतेन्द्रियः | संयम, अनुशासन और ध्यान |
ज्ञानं लब्ध्वा | आत्मा का साक्षात्कार |
परां शान्तिम् | मोक्ष, निर्वाण, ब्रह्म स्थिति |
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- आत्मज्ञान किसी भी साधक के जीवन का सर्वोच्च उद्देश्य है।
- उस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए बाहरी साधनों से अधिक आंतरिक तैयारी की आवश्यकता है।
- श्रद्धा और समर्पण के बिना केवल विद्वता से मोक्ष नहीं मिलता।
- इन्द्रिय संयम एक महत्वपूर्ण सीढ़ी है जो साधक को ब्रह्मज्ञान तक पहुँचाती है।
- केवल ज्ञान नहीं, उसका आत्मसात और जीवन में अनुभव भी आवश्यक है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मेरी साधना में सच्ची श्रद्धा है?
क्या मैं ज्ञान प्राप्ति के लिए पूरी तत्परता से प्रयास कर रहा हूँ?
क्या मेरी इन्द्रियाँ संयमित हैं या वे मुझे बाहर की ओर आकर्षित करती हैं?
क्या मुझे ज्ञान प्राप्त होने के बाद शांति का अनुभव हो रहा है या नहीं?
क्या मैं गीता के इस सिद्धांत को अपने जीवन में अपनाने का प्रयास कर रहा हूँ?
निष्कर्ष
यह श्लोक स्पष्ट करता है कि आत्मज्ञान केवल बुद्धि या तर्क से नहीं मिलता — इसके लिए श्रद्धा, समर्पण और संयम का त्रिवेणी संगम आवश्यक है।
जब साधक श्रद्धा से युक्त होकर, तत्परता के साथ संयमित जीवन जीता है, तब वह आत्मज्ञान को प्राप्त करता है।
यह ज्ञान ही उसे संसारिक दुख-सुख से परे एक ऐसी शांति की ओर ले जाता है जो परम, अविनाशी और नित्य होती है।
यह शांति ही आत्मा की वास्तविक स्थिति है — और गीता का यह श्लोक उसी मोक्षगामी मार्ग की दिशा दिखाता है।