मूल श्लोक: 40
अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ॥
शब्दार्थ
- अज्ञः — अज्ञानयुक्त व्यक्ति
- अश्रद्दधानः — श्रद्धा रहित, विश्वासहीन
- संशयात्मा — संदेहशील मन वाला व्यक्ति
- विनश्यति — नष्ट हो जाता है, पतन को प्राप्त होता है
- न अयम् लोकः अस्ति — न यह लोक रहता है (सुखप्रद होता है)
- न परः — न परलोक सुखद होता है
- न सुखं — और न ही सुख प्राप्त होता है
- संशयात्मनः — संदेह करने वाले के लिए
किन्त जिन अज्ञानी लोगों में न तो श्रद्धा और न ही ज्ञान है और जो संदेहास्पद प्रकृति के होते हैं उनका पतन होता है। संशययुक्त जीवात्मा के लिए न तो इस लोक में और न ही परलोक में सुख है।

विस्तृत भावार्थ
भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में अर्जुन को स्पष्ट रूप से चेतावनी दे रहे हैं कि ज्ञान के मार्ग पर चलने के लिए तीन विशेष गुणों की आवश्यकता होती है:
- ज्ञान (ज्ञान का अर्जन)
- श्रद्धा (गुरु, शास्त्र और परमात्मा पर विश्वास)
- संशय से रहित मन (निर्णयशील बुद्धि)
जिस व्यक्ति में ये तीनों नहीं हैं — अर्थात वह अज्ञानी है, उसमें श्रद्धा नहीं है, और वह संशय में डूबा हुआ है — तो उसका जीवन नष्ट हो जाता है।
संशय केवल एक विचार नहीं, बल्कि आत्मा को विक्षिप्त करने वाला एक मानसिक रोग है। यह मनुष्य को निर्णयहीन, भयभीत और निष्क्रिय बना देता है।
संशय मनुष्य के आध्यात्मिक और लौकिक दोनों मार्गों को अवरुद्ध करता है। ऐसा व्यक्ति न तो जीवन में शांति और सुख को प्राप्त कर सकता है, न ही मृत्यु के बाद मोक्ष को। वह इस लोक में भ्रमित रहता है और परलोक में भी अंधकार को प्राप्त होता है।
दार्शनिक दृष्टिकोण
यह श्लोक आत्मा की दृढ़ता और विश्वास की आवश्यकता को रेखांकित करता है।
अज्ञान वह स्थिति है जिसमें मनुष्य अपने वास्तविक स्वरूप को नहीं जानता, न ही उसे ईश्वर के मार्ग की पहचान होती है।
अश्रद्धा एक और गंभीर दोष है। चाहे ज्ञान कितना भी दिया जाए, यदि व्यक्ति में श्रद्धा नहीं है तो वह उस ज्ञान को कभी आत्मसात नहीं कर सकता।
संशय इन दोनों से भी अधिक खतरनाक है। यह वह मानसिक स्थिति है जो व्यक्ति को असमंजस, भय, आलस्य और निष्क्रियता में डुबो देती है।
संशयशील आत्मा स्वयं पर, अपने निर्णयों पर, अपने कर्मों पर, अपने गुरु और शास्त्रों पर, यहाँ तक कि ईश्वर पर भी शंका करता है। ऐसा व्यक्ति किसी भी आध्यात्मिक उपलब्धि तक नहीं पहुँच सकता।
प्रतीकात्मक अर्थ
- अज्ञ: वह जो ज्ञान के महत्व को नहीं समझता, जो आत्मज्ञान से दूर है।
- अश्रद्दधान: वह जो गुरु, ग्रंथ और ईश्वर में विश्वास नहीं करता।
- संशयात्मा: वह जो संदेह करता है – “क्या यह सत्य है?”, “क्या ईश्वर है?”, “क्या यह मार्ग सही है?”
- विनश्यति: उसका जीवन अंधकार और भ्रम में समाप्त हो जाता है।
- नायं लोकोऽस्ति न परः: ऐसा व्यक्ति संसार में भी दुखी रहता है और मृत्यु के बाद भी अज्ञान के कारण मोक्ष नहीं प्राप्त करता।
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- श्रद्धा अनिवार्य है: गुरु और शास्त्रों में विश्वास करना आत्मज्ञान की पहली सीढ़ी है।
- ज्ञान अर्जन आवश्यक है: केवल भावनाओं से नहीं, बल्कि सही ज्ञान से ही जीवन का मार्गदर्शन हो सकता है।
- संशय त्यागें: यदि संदेह रहेगा, तो कोई भी साधना, उपासना या ध्यान सच्चे फल नहीं देगा।
- संकल्प और विश्वास से जीवन आगे बढ़ता है: दृढ़ विश्वास ही मनुष्य को साधना में स्थिर बनाता है।
- आत्मविकास के लिए निर्मल बुद्धि जरूरी है: जो बुद्धि निरंतर संदेह करती है, वह सदा भ्रम में रहती है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मैं आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रयासरत हूँ?
क्या मैं अपने गुरु और शास्त्रों पर श्रद्धा रखता हूँ?
क्या मैं अपने भीतर उठने वाले संशय को समझने और मिटाने का प्रयास करता हूँ?
क्या मेरे निर्णयों में दृढ़ता और आत्मविश्वास है या मैं बार-बार डगमगाता हूँ?
क्या मैंने सत्य के मार्ग पर चलने का निश्चय किया है?
क्या मैं ज्ञान प्राप्त करके जीवन के अंधकार को मिटा रहा हूँ?
नैतिक दृष्टिकोण से सीख
इस श्लोक का प्रभाव केवल आध्यात्मिक क्षेत्र तक सीमित नहीं है, बल्कि यह दैनिक जीवन में निर्णय, विश्वास, और आस्था की महत्ता को भी दर्शाता है।
- अज्ञता का त्याग करें – जानकारी और विवेक के बिना जीवन भ्रमित रहता है।
- श्रद्धा रखें – बिना श्रद्धा कोई भी शिक्षा, उद्देश्य या साधना प्रभावी नहीं होती।
- संशय से मुक्त रहें – लगातार संदेह करने से निर्णय लेने की क्षमता समाप्त हो जाती है।
निष्कर्ष
भगवद्गीता के इस श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन को स्पष्ट करते हैं कि ज्ञान, श्रद्धा और निर्णयशीलता आत्मविकास की अनिवार्य शर्तें हैं।
जो व्यक्ति न तो ज्ञान प्राप्त करता है, न श्रद्धा करता है और न ही संदेहों से ऊपर उठता है — वह इस लोक में भी दुखी रहता है और परलोक में भी मुक्ति से वंचित रहता है।
संशय वह जाल है जो मनुष्य को न आगे बढ़ने देता है, न पीछे हटने।
अतः इस श्लोक की शिक्षा है कि ज्ञानार्जन करें, श्रद्धा रखें और संदेह से मुक्त होकर परमात्मा के मार्ग पर चलें।
यही पथ जीवन को सार्थक, शांत और मुक्त बनाता है।