मूल श्लोक: 41
योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसञ्छिन्नसंशयम्।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय ॥
शब्दार्थ
- योग-संन्यस्त-कर्माणम् — योग के द्वारा कर्मों का त्याग करने वाले को
- ज्ञान-सञ्छिन्न-संशयम् — ज्ञान द्वारा जिनका संशय (संदेह) पूर्णतः नष्ट हो चुका हो
- आत्मवन्तम् — आत्मज्ञान में स्थित, आत्मा के स्वभाव को जानने वाला
- न कर्माणि निबध्नन्ति — कर्म उसे बाँधते नहीं, उसे बंधन में नहीं डालते
- धनञ्जय — हे धनञ्जय (अर्जुन)!
हे अर्जुन! जिन्होंने योग की अग्नि में कर्मों को विनष्ट कर दिया है और ज्ञान द्वारा जिनके समस्त संशय दूर हो चुके हैं। कर्म उन लोगों को बंधन में नहीं डाल सकते। वे वास्तव में आत्मज्ञान में स्थित हो जाते हैं।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण आत्मज्ञान, संशय का अंत और योग के प्रभाव की महिमा बताते हैं। वे अर्जुन को यह समझा रहे हैं कि केवल कर्म करने से नहीं, अपितु सच्चे आत्मज्ञान और योगमय भावना से युक्त कर्म त्याग ही वह साधन है जिससे व्यक्ति बंधनों से मुक्त होता है।
तीन मुख्य विशेषताएँ इस श्लोक में हैं:
- योग द्वारा कर्मों का त्याग (योगसंन्यास)
- ज्ञान द्वारा संशय का अंत (सञ्छिन्न संशय)
- आत्मज्ञान में स्थित व्यक्ति (आत्मवान्)
जो व्यक्ति इन तीन अवस्थाओं को प्राप्त कर चुका होता है, उसके लिए कर्म उसे नहीं बाँधते, क्योंकि वह उनमें आसक्त नहीं होता। वह केवल कर्तव्य की भावना से कर्म करता है, फल की कामना से नहीं।
भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण
१. योगसंन्यस्तकर्माणम् — कर्मों का योगपूर्वक त्याग
- यहाँ “संन्यास” का अर्थ भागकर कर्म छोड़ देना नहीं, बल्कि फल की आसक्ति को त्याग देना है।
- योग का सार है — कर्म करते हुए भी उससे अनासक्त रहना।
- जब मनुष्य आत्मा की स्थिति में स्थित होकर कर्म करता है, तब वह कर्म उसे नहीं बाँधते।
- ऐसे कर्म स्वतः “योगमय” हो जाते हैं, और उनका प्रभाव आत्मा को जन्म-मरण के चक्र में नहीं फँसाता।
२. ज्ञानसञ्छिन्नसंशयम् — संशयों का विनाश
- संशय (संदेह) साधक के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा होता है।
- “क्या यह मार्ग सही है?”, “क्या आत्मा वास्तव में अमर है?” — ऐसे सवाल साधक को विचलित करते हैं।
- केवल तत्वज्ञान, गुरु-उपदेश और आत्मानुभव के द्वारा ही ये संशय समाप्त होते हैं।
- जब संशय कट जाते हैं, तब साधक पूर्ण विश्वास और निश्चय के साथ अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता है।
३. आत्मवन्तम् — आत्मा में स्थित व्यक्ति
- आत्मवान वह है जो अपने आत्मस्वरूप को जानता है, जिसे आत्मसाक्षात्कार हो चुका है।
- ऐसा व्यक्ति जानता है कि वह शरीर नहीं, शुद्ध आत्मा है, जो न जन्म लेती है, न मरती है।
- वह न अहंकार करता है, न किसी वस्तु से मोह रखता है।
- उसके कर्म केवल “धर्म” के लिए होते हैं — स्वयं के लिए नहीं।
४. कर्मों से मुक्ति — न कर्माणि निबध्नन्ति
- सामान्य मनुष्य का कर्म उसे बंधन में डालता है — क्योंकि उसमें आसक्ति और अहंकार होता है।
- लेकिन आत्मज्ञानी, योगयुक्त व्यक्ति के कर्म बंधनरहित होते हैं।
- वे उस प्रकार हैं जैसे कोई फूल जल में तैर रहा हो — जल में रहकर भी गीला न हो।
दार्शनिक दृष्टिकोण
यह श्लोक भगवद्गीता की कर्मयोग और ज्ञानयोग की शिक्षा को समाहित करता है। इसका मूल संदेश है कि:
- कर्म करते हुए भी व्यक्ति यदि स्वयं को आत्मा समझे,
- ज्ञानपूर्वक अपने भीतर के संशयों को नष्ट करे,
- योग के द्वारा फल की आसक्ति को त्यागे —
तो वह कर्म करते हुए भी बंधता नहीं है।
यह स्थिति मुक्ति का आरंभ है। ऐसे साधक को संसार में रहकर भी सांसारिक बंधन नहीं बाँधते। वह “कर्म करते हुए अकर्म” की स्थिति में पहुँच जाता है।
प्रतीकात्मक अर्थ
तत्व | प्रतीकात्मक अर्थ |
---|---|
योगसंन्यस्तकर्म | कर्मों में रहते हुए भी मोह का त्याग |
ज्ञान | आत्मा और परमात्मा का साक्षात्कार |
संशय | अज्ञान, भ्रम, संदेह |
आत्मवान् | आत्मज्ञानी, स्थितप्रज्ञ |
कर्म बंधन | संसार के दुःख, जन्म-मरण का चक्र |
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- कर्म का परित्याग नहीं, कर्म की आसक्ति का त्याग आवश्यक है।
- ज्ञान बिना कर्म का बंधन टूटता नहीं।
- संशय आत्मा की यात्रा का सबसे बड़ा शत्रु है।
- आत्मा का बोध व्यक्ति को कर्म के बंधन से मुक्त कर देता है।
- सच्चा योग वह है जिसमें व्यक्ति कर्म करता है पर स्वयं को कर्ता नहीं मानता।
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मेरे कर्म योगयुक्त हैं या मोहयुक्त?
क्या मैंने आत्मज्ञान प्राप्त किया है या केवल पुस्तकीय ज्ञान है?
क्या मेरे जीवन में संशय हैं जो मुझे रोकते हैं?
क्या मैं स्वयं को आत्मा के रूप में जानता हूँ या शरीर के साथ तादात्म्य रखता हूँ?
क्या मैं कर्म करते हुए फल की चिंता करता हूँ?
निष्कर्ष
भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में अर्जुन को और समस्त मानवता को यह सिखाते हैं कि:
- केवल कर्म करना पर्याप्त नहीं।
- कर्म के साथ योग चाहिए — योग के साथ ज्ञान चाहिए — ज्ञान के साथ संशय का विनाश चाहिए।
- और तब जाकर आत्मज्ञान में स्थित होकर कर्म करने वाला व्यक्ति मुक्त होता है।
ऐसा व्यक्ति संसार में रहते हुए भी संसार से परे होता है — यही कर्मयोग और ज्ञानयोग का सार है।