मूल श्लोक: 5
श्रीभगवानुवाच।
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ॥5॥
शब्दार्थ
- श्रीभगवानुवाच — भगवान श्रीकृष्ण ने कहा
- बहूनि — अनेक
- मे — मेरे
- व्यतीतानि — बीते हुए
- जन्मानि — जन्म
- तव च — तुम्हारे भी
- अर्जुन — हे अर्जुन
- तानि अहम् वेद — उन सबको मैं जानता हूँ
- सर्वाणि — सभी
- न त्वम् वेत्थ — लेकिन तुम नहीं जानते
- परन्तप — हे शत्रुओं को संतप्त करने वाले (अर्जुन के लिए संबोधन)
तुम्हारे और मेरे अनन्त जन्म हो चुके हैं किन्तु हे परन्तप! तुम उन्हें भूल चुके हो जबकि मुझे उन सबका स्मरण है।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण आत्मा के पुनर्जन्म के सिद्धांत को स्पष्ट करते हैं। वे अर्जुन से कहते हैं कि न केवल उन्होंने, बल्कि अर्जुन ने भी कई जन्म लिए हैं। अंतर यह है कि श्रीकृष्ण उन सभी जन्मों को पूर्ण रूप से जानते हैं क्योंकि वे परमात्मा हैं, जबकि अर्जुन, एक सामान्य जीवात्मा होने के कारण, अपने पिछले जन्मों को स्मरण नहीं कर सकता।
यह श्लोक भगवान की दिव्यता और मनुष्य की सीमितता को स्पष्ट करता है। जहाँ ईश्वर समय और जन्म के बंधन से परे होते हैं, वहीं सामान्य जीव भौतिक देह और माया के कारण अपने वास्तविक स्वरूप और इतिहास को भूल जाता है।
भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण
दार्शनिक दृष्टिकोण
श्लोक का यह रहस्य यह उद्घाटित करता है कि आत्मा अनादि और अमर है, जो विभिन्न शरीरों में जन्म लेती रहती है। लेकिन केवल परमात्मा (भगवान श्रीकृष्ण) को ही यह पूर्ण स्मरण रहता है।
यहाँ “जन्म” केवल भौतिक शरीर तक सीमित नहीं है, बल्कि चेतना के स्तर पर भी संकेत करता है — आत्मा की यात्रा, उसके कर्म, उसके अनुभव, और उसके बंधन।
परमात्मा, जो सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान है, अपने हर अवतार और लीला को जानता है, जबकि जीव माया से आच्छादित होकर अपने स्वरूप को भूल जाता है।
प्रतीकात्मक अर्थ
- जन्मानि — केवल शरीर नहीं, बल्कि आत्मा की चेतना की विभिन्न अवस्थाएँ
- तान्यहं वेद — ईश्वर की सर्वज्ञता का प्रतीक
- न त्वं वेत्थ — माया के आवरण में लिप्त जीव की सीमितता
- परन्तप — अर्जुन की भीतरी शक्ति की स्मृति दिलाना, जो उसे युद्ध में प्रेरित करती है
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- आत्मा अनेक जन्म लेती है; जीवन एक ही अवसर नहीं है
- भगवान को अपने प्रत्येक अवतार, कर्म और जीवों के जन्मों की पूर्ण जानकारी रहती है
- हमें अपने सीमित दृष्टिकोण को स्वीकारते हुए ईश्वर की दिव्यता और मार्गदर्शन में विश्वास करना चाहिए
- यह ज्ञान मनुष्य को आत्मा के प्रति जागरूक बनाता है और मोक्ष की ओर प्रेरित करता है
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मैं यह जानता हूँ कि मेरा आत्मस्वरूप इस शरीर से परे है?
क्या मैं अपने आत्मिक इतिहास को जानने और समझने की जिज्ञासा रखता हूँ?
क्या मैं ईश्वर की सर्वज्ञता पर पूर्ण विश्वास करता हूँ?
क्या मेरी वर्तमान स्थिति भी मेरे ही पूर्व कर्मों का परिणाम है?
निष्कर्ष
भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में आत्मा के शाश्वत स्वरूप की ओर इशारा करते हैं। वे अर्जुन को यह समझाते हैं कि जन्म और मृत्यु केवल भौतिक दृष्टि से सीमित नहीं हैं। आत्मा की यात्रा अनंत है, और उस पर केवल ईश्वर की दृष्टि संपूर्ण होती है।
यह श्लोक ईश्वर के दिव्य रूप को स्थापित करता है और जीव की सीमाओं को स्पष्ट करता है। यह ज्ञान व्यक्ति को अपने जीवन की गहराई को समझने और आत्मबोध की दिशा में चलने की प्रेरणा देता है।